प्रकृति का भौतिक स्वरूप आकर्षण का केन्द्र होता है। लेकिन इसके इस स्वरूप का भविष्य अनिश्चित है। इसके अतीत को जानने के लिए हमें किसी भूगोलवेत्ता या भूगर्भवेत्ता की शरण में जाना पड़ेगा। वैसे इतिहास में यदि हमारी रूचि हो तो इतिहास की किताबों से कुछ न कुछ इसके बारे में हम जान ही जाते हैं। और अगर इतिहास का वर्तमान हमारे सामने दृश्य हो तो यह भी आकर्षण का केन्द्र होता है। मेरी आत्मा इतिहास और भूगोल दोनों में बसती है। तो इस बार मैं आत्मा की शांति के लिए निकल पड़ा महाराष्ट्र के ऐतिहासिक शहर औरंगाबाद की ओर। लेकिन अकेले नहीं वरन अपनी चिरसंगिनी संगीता के साथ।
एेतिहासिक दृष्टि से औरंगाबाद एक ऐसा शहर रहा है जिसमें इतिहास के हर कालखण्ड में राजाओं,सम्राटों,सुल्तानों की अभिरूचि रही है। कारण चाहे जो भी रहे हों। इस शहर का नाम बदलकर औरंगाबाद रखते समय औरंगजेब ने चाहे जो भी सोचा हो लेकिन यह शहर उसके साथ ऐसा चिपका कि उसके जीवन का उत्तरार्द्ध यहीं बीत गया। और तो और अंतिम साँस भी यहीं की हो कर रह गयी। तो मेरी भी इच्छा अगर औरंगाबाद के भेद लेने की जगी तो इसमें कोई बहुत भेद वाली बात नहीं। अपनी ऐतिहासिक धरोहरों को एक नजर देख लेने की इच्छा अगर यात्रा में होने वाले कष्टों से अधिक बलवती हो तो फिर यात्रा अवश्यम्भावी है।
मैं भी 22 दिसम्बर को गोरखपुर से मुम्बई जाने वाली काशी एक्सप्रेस (15018) की शरण में पड़ा। निकटवर्ती बेल्थरा रोड स्टेशन से रिजर्वेशन कराया था और हमेशा की तरह अपने पिट्ठू और घसीटू भाइयों को लेकर चल पड़ा। संगीता की पसंद की सीट नीचे वाली। कई फायदे इसके भी हैं– सहयात्रियों से बातचीत करने का अवसर,चाय पीकर चाय की गिलास खिड़की से बाहर फेंकने में कोई झंझट नहीं,ऊपर की सीट पर चढ़ने–उतरने के झमेले से मुक्ति और सबसे बड़ा फायदा खिड़की से बाहर की दुनिया देखने का मजा। मेरी पसंद ऊपर की सीट। आराम से ऊपर चढ़ गये और फिर तमाम दुनियावी झंझटों से मोक्ष की प्राप्ति। इक्का–दुक्का सामान है तो वो भी ऊपर ही एडजस्ट। मेरे तो घसीटू और पिट्ठू दोनों मेरे साथ ही ऊपर चढ़ जाते हैं। न तो सामान पर चोर जाति के मनुष्य का हाथ साफ होने का डर और न जनरल के यात्री भाइयों से किच–किच का भय। नींद आये तो सो जाइए,न नींद आये तो जगे रहिए। अब जहाँ तक चाय वगैरह की गिलास फेंकने का सवाल है तो उसको तो ऊपर लगे पंखों की जालियों में फँसा कर हम अपने स्वच्छ भारतीय होने का सबूत भी पेश कर सकते हैं। और सबसे बड़ा फायदा– हिंजड़ों के आतंक से मुक्ति। जी हाँ,गैलरी में दूर से आते दिखें और अगर न भी दिखें तो उनकी ताली की आवाज तो कानों में आ ही जायेगी और उनके आने की आहट किसी भी तरीके से कानों में पड़े तो फिर झटपट कुम्भकर्णी निद्रा में पड़ जाइए। दस रूपये बच जायेंगे। उच्च सम्भावना है कि वे सोते हुए को नहीं जगाएंगे। अब ऊपर की सीट होने के नाते थोड़ा बहुत चढ़ना–उतरना पड़ता है तो इतना अप–डाउन तो ट्रेन तो क्या पूरी जिन्दगी में लगा रहता है। इतना तो कष्ट उठाया ही जा सकता है।
एेतिहासिक दृष्टि से औरंगाबाद एक ऐसा शहर रहा है जिसमें इतिहास के हर कालखण्ड में राजाओं,सम्राटों,सुल्तानों की अभिरूचि रही है। कारण चाहे जो भी रहे हों। इस शहर का नाम बदलकर औरंगाबाद रखते समय औरंगजेब ने चाहे जो भी सोचा हो लेकिन यह शहर उसके साथ ऐसा चिपका कि उसके जीवन का उत्तरार्द्ध यहीं बीत गया। और तो और अंतिम साँस भी यहीं की हो कर रह गयी। तो मेरी भी इच्छा अगर औरंगाबाद के भेद लेने की जगी तो इसमें कोई बहुत भेद वाली बात नहीं। अपनी ऐतिहासिक धरोहरों को एक नजर देख लेने की इच्छा अगर यात्रा में होने वाले कष्टों से अधिक बलवती हो तो फिर यात्रा अवश्यम्भावी है।
मैं भी 22 दिसम्बर को गोरखपुर से मुम्बई जाने वाली काशी एक्सप्रेस (15018) की शरण में पड़ा। निकटवर्ती बेल्थरा रोड स्टेशन से रिजर्वेशन कराया था और हमेशा की तरह अपने पिट्ठू और घसीटू भाइयों को लेकर चल पड़ा। संगीता की पसंद की सीट नीचे वाली। कई फायदे इसके भी हैं– सहयात्रियों से बातचीत करने का अवसर,चाय पीकर चाय की गिलास खिड़की से बाहर फेंकने में कोई झंझट नहीं,ऊपर की सीट पर चढ़ने–उतरने के झमेले से मुक्ति और सबसे बड़ा फायदा खिड़की से बाहर की दुनिया देखने का मजा। मेरी पसंद ऊपर की सीट। आराम से ऊपर चढ़ गये और फिर तमाम दुनियावी झंझटों से मोक्ष की प्राप्ति। इक्का–दुक्का सामान है तो वो भी ऊपर ही एडजस्ट। मेरे तो घसीटू और पिट्ठू दोनों मेरे साथ ही ऊपर चढ़ जाते हैं। न तो सामान पर चोर जाति के मनुष्य का हाथ साफ होने का डर और न जनरल के यात्री भाइयों से किच–किच का भय। नींद आये तो सो जाइए,न नींद आये तो जगे रहिए। अब जहाँ तक चाय वगैरह की गिलास फेंकने का सवाल है तो उसको तो ऊपर लगे पंखों की जालियों में फँसा कर हम अपने स्वच्छ भारतीय होने का सबूत भी पेश कर सकते हैं। और सबसे बड़ा फायदा– हिंजड़ों के आतंक से मुक्ति। जी हाँ,गैलरी में दूर से आते दिखें और अगर न भी दिखें तो उनकी ताली की आवाज तो कानों में आ ही जायेगी और उनके आने की आहट किसी भी तरीके से कानों में पड़े तो फिर झटपट कुम्भकर्णी निद्रा में पड़ जाइए। दस रूपये बच जायेंगे। उच्च सम्भावना है कि वे सोते हुए को नहीं जगाएंगे। अब ऊपर की सीट होने के नाते थोड़ा बहुत चढ़ना–उतरना पड़ता है तो इतना अप–डाउन तो ट्रेन तो क्या पूरी जिन्दगी में लगा रहता है। इतना तो कष्ट उठाया ही जा सकता है।
ट्रेन में जब हम चढ़े तो केबिन में छः की छः सीटें भरी हुई थीं। हम डरे कि हमारा टिकट कैंसिल करके किसी और को तो नहीं दे दिया गया। राजनीति में अक्सर ऐसा होता है। अब ट्रेन में भी होने लगे तो चिंता का विषय है। लेकिन पता चला कि वे सभी अवैध कब्जेदार थे। आसानी से जगह मिल गयी। दो स्टेशन बाद दो वैध लोग और आ गये। ये हमारी तरह पति–पत्नी ही थे। कुछ तो टेंशन कम हुआ। अगले दो लाेग कौन होंगे अभी ये भविष्य के गर्त में था। भदोही स्टेशन पर बाकी बचे दो कब्जेदारों का शुभागमन हुआ। लेकिन उनके पहले बैग और अटैचियों का प्रवेश हुआ। कुछ भूमिमार्ग से आ रहे थे कुछ हवाई मार्ग से। मैं गिनने लगा– एक, दो,तीन ...... और फिर इतनी तेजी से बैग आने लगे कि मेरी गिनती गड़बड़ा गयी। पन्द्रह से कम नहीं थे। दो महिलाएं,दो बहुत ही छोटे बच्चे और एक पुरूष। पूरी गृहस्थी ही उठा लाये थे। अब मुम्बई जाना है तो कोई गृहस्थी छोड़ कर तो जायेगा नहीं। अगल–बगल के सारे यात्री उठ कर बैठ गये। अराजकता फैल गयी। जनरल वाले पहले से ही भरे पड़े थे। मैं ऊपर की सीट पर बैठा बिना टिकट का तमाशा देख रहा था। नीचे संगीता और थोड़ी देर पहले चढ़े वैध टिकट वाले दम्पत्ति के लिए मुसीबत खड़ी हो गयी। अब मैं संगीता को ऊपर की सीट के फायदे गिनाने और साथ ही साथ दिखाने भी लगा। लेकिन अब इससे काम चलने वाला नहीं था। सभी लोगों ने मिलकर उनका सामान व्यवस्थित किया और तब जाकर स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में हुई।
वाराणसी और इलाहाबाद के बीच मैंने इधर–उधर उछल–कूद कर बोगी का जायजा लेने की कोशिश की। मैं चौंक पड़ा। अधिकांश सीटों पर दो–दो आदमी बैठे या फिर लेटे थे। इसकी अधिकांश सीटें आर ए सी हैं क्याǃ बगल की ऊपर वाली सीट पर लेटे दो लोगों के सामने मैंने अपना सवाल रख दिया तो उन्होंने मेरी आँखें खोल दीं। एक ने बताया कि मैं मुम्बई में ही काम करता हूॅँ। मेरी कन्फर्म सीट थी। मेरा यह मित्र भी काम की तलाश में जाना चाह रहा था। अब एक सप्ताह पहले तो सीट मिलती नहीं। तो इसने वेटिंग टिकट ले ली और उसके बाद आप देख ही रहे हैं। मैं वास्तव में देख रहा था। और देख ही नहीं समझ भी रहा था। दरअसल यह ट्रेन पूर्वी उत्तर प्रदेश से मनुष्यों को ढोकर मुम्बई में खपाती है। जब गाँवों में कोई काम नहीं रहता है तो लोगबाग शहर की तरफ अन्धी दौड़ लगा देते हैं। यह ट्रेन मददगार साबित होती है। ऐसे ही त्योहारों के वक्त घर जाने के समय तो यह ट्रेन अँचार के डब्बे जैसे हो जाती है। तो इसकी आज की दशा भी कोई बुरी नहीं है। मेरे समझने में ही फर्क है।
वाराणसी तक तो ट्रेन की चाल कुछ ठीक–ठाक थी। लेकिन इलाहाबाद पहुँचते–पहुँचते ढाई घण्टे से अधिक लेट। न कोहरा न बाढ़। लेकिन ठण्ड थी। ट्रेन को भी ठण्ड लग रही है क्याǃ एक महोदय ने बताया कि वाराणसी और इलाहाबाद के बीच में यह हर स्टेशन पर रूकती है इसलिए लेट हो जाती है। वो मैं देख ही रहा था। एक महोदय ने बताया कि रेलवे के इस सेक्शन पर गाड़ियां ऐसे ही चलती हैं। वो मैं देख ही रहा था। किसी ने बताया कि कई क्रासिंग हो गयी इसलिए लेट है। मैं वो भी देख रहा था। बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता। और जब इतने सारे कारण हैं तो कार्य यानी ट्रेन का लेट होना,होगा ही। रेलों के परिचालन में भी कार्य–कारण सम्बन्ध सिद्ध हुआ।
इलाहाबाद के बाद रात होने लगी। मैंने दिन भर अपनी ऊपर की सीट का सदुपयोग किया था। तो अब रात को भी करना ही था। संगीता की सीट नीचे वाली थी। लेकिन सदुपयोग क्या ठीक से उपयोग भी नहीं हो पाया था। और अब पन्द्रह बैग वालों ने उसी नीचे वाली सीट के लिए रिक्वेस्ट कर दी तो उसे छोड़कर बीच वाली सीट पर ही सोना पड़ा। लो मजा नीचे की सीट का।
खैर ट्रेन से यात्रा ही करनी थी,उसमें घर नहीं बनाना था। तो अगले दिन 12 बजे की बजाय 4.10 बजे हम चालीसगाँव पहुँचे। हमारी योजना थी कि अगर ट्रेन समय से पहुँच जाती तो चालीसगाँव से 36 किमी दूर पीतलखोरा की गुफाएं देखने जाते और रात में चालीसगाँव में रूकते। अगले दिन औरंगाबाद जाते। लेकिन प्लान "ए" फेल। अब प्लान "बी"। अब हम आज ही बस पकड़कर औरंगाबाद निकलेंगे। और इसके लिए चालीसगाँव रेलवे स्टेशन से बाहर निकलना पड़ेगा। तो ओवर ब्रिज के सहारे प्लेटफार्म नं0 एक की तरफ निकल पड़े। बाहर निकले तो लग ही नहीं रहा था कि स्टेशन है। एक आॅटो वाले से पूछा तो पता चला कि स्टेशन का मेन गेट तो प्लेटफार्म नं0 3 की ओर है। बस स्टेशन जाने के लिए ऑटो भी वहीं से मिलेगी। सब कुछ उल्टा–पुल्टा। बैरंग वापस हो लिए। मेन गेट की ओर निकले तो तुरंत ऑटो मिल गयी। किराया 20 रूपये सवारी। दूरी लगभग 1 किमी और रास्ता बिलकुल सीधा। लेकिन हमें मालूम न था तो ऑटो का सहारा लेना मजबूरी थी।
4.45 पर हम बस स्टेशन पहुँच गये। ऊबड़–खाबड़ फर्श वाला बस स्टेशन का प्रांगण। लाल–लाल बसों से भरा हुआ। खाकी वर्दी वाले भी बड़ी संख्या में दिख रहे थे। मन में डर समा गया। लेकिन जल्दी ही स्पष्ट हो गया कि ये पुलिस वाले नहीं वरन बसों के ही ड्राइवर और कण्डक्टर हैं। पता चला कि औरंगाबाद की बस प्लेटफार्म नं. एक व दो से मिलेगी। हर दस मिनट पर बस है। मन प्रसन्न हुआ कि बस तो कम से कम खोजनी नहीं पड़ेगी। लेकिन जब मौके पर पहुँचे तो यहाँ माजरा ही कुछ और था। बसें तो वास्तव में दस मिनट पर हैं लेकिन सवारियां उससे भी अधिक। शनिवार का दिन था और इसके बाद क्रिसमस के अलावा स्कूल भी कई दिनाें के लिए बन्द हो रहे थे। भीड़ बसों पर आफत बनकर टूट रही थी। उस पर भी समस्या ये कि चालीसगाँव से चलकर औरंगाबाद जाने वाली एक भी बस नहीं थी। सारी की सारी बसें धुले या शिरपुर या जलगाँव से आकर औरंगाबाद जा रहीं थीं और यहाँ उतरने वाले बहुत कम ही लोग थे। उतरने वालों के कई गुने चढ़ने वाले थे। इसलिए मारामारी मची थी। जिसको सीट चाहिए थी वह खिड़कियों से ही आक्रमण कर रहा था। उसके बाद भी इक्का–दुक्का लोगों को ही सीट मिल रही थी। मैंने सुन रखा था कि औरंगाबाद महाराष्ट्र की पर्यटन राजधानी है। अब देख भी रहा था।
बस के लिए ऐसी मारामारी देखकर मैं स्टेशन से बाहर निकला– इस फिराक में कि कहीं कोई प्राइवेट बस भी मिले तो चला जाय। एक–दो लोगों से पूछताछ भी की। लेकिन अन्य कोई साधन मिलने की संभावना नहीं दिखी। शायद महाराष्ट्र परिवहन निगम के बड़े ढाँचे ने निजी ऑपरेटरों कों ठीक से पनपने नहीं दिया है। जैसा कि हमारे उत्तर प्रदेश में परिवहन निगम के समानान्तर निजी ऑपरेटर भी अपनी गाड़ियां चलाते हैं वैसा महाराष्ट्र में तो मुझे नहीं दिखा। सच्चाई चाहे जो भी हो। हाँ रिजर्व में चलने वाली छोटी गाड़ियां अवश्य उपलब्ध हैं। अब महाराष्ट्र परिवहन निगम कितना विकसित है ये तो वही जाने। क्योंकि स्टेशन और बसें तो हैं लेकिन दोनों ही खड़खड़ाते हुए। लेकिन चिकनी सड़कें इनकी खड़खड़ाहट की आवाज को छ्पिा लेती हैं।
पहली और दूसरी बस तो हमने इस उम्मीद में छोड़ दी कि शायद तीसरी में जगह मिल जाय। लेकिन उसके बाद हमने भी हमले तेज कर दिये। बैग लेकर बस के गेट से चढ़ना भी मुश्किल था। लेकिन अपने एक आक्रमण में हम भी सफल हुए। सबसे पीछे की सीट पर बैठी एक महिला ने हमारी मदद की। दोनों बैग अंदर हो गये। संगीता भी गेट से अंदर प्रवेश कर एक सीट कब्जाने में सफल हो गयी लेकिन सीट पर बैग रखे होने के बावजूद दूसरी सीट के लिए झगड़ा करना पड़ गया। कुल मिलाकर बस में सीट हथियाने में हम लोग सफल हो गये। देर आयत दुरूस्त आयत। बसों की पर्याप्त संख्या होने के बावजूद घण्टे भर लग गये। पौने पाँच बजे हम चालीसगाँव के बस स्टेशन पहुँचे थे लेकिन बस मिलने और उसे रवाना होने में पौने छः हो गये। चालीसगाँव से औरंगाबाद की दूरी 90 किमी है। बस का किराया 102 रूपये। बस ठीक–ठाक चली और तीन घण्टे में अर्थात 8.45 बजे औरंगाबाद सेन्ट्रल बस स्टेशन पहुँच गयी। चालीसगाँव से लगभग 20 किमी चलने के बाद सड़क पहाड़ियों की एक छोटी सी श्रृंखला को पार करती है। इन पहाड़ियों में गौताला वन्यजीव अभयारण्य स्थित है। इन्हीं पहाड़ियों में पीतलखोरा की गुफाएं भी स्थित हैं जहाँ जाने की योजना हमने बनायी थी लेकिन जा नहीं सके थे। इन पहाड़ियों में ट्रेकिंग बहुत आनन्ददायक हाेती।
रात के पौने नाै बजे जब हम औरंगाबाद पहुँचे तो मन कई आशंकाओं से डर रहा था। एक तो रात में शहर का भूगोल समझ में नहीं आता है। साथ ही रात में कमरों के किराये भी बढ़ जाते हैं। उस पर भी अंजान जगह। को़ढ़ में खाज यह कि शनिवार का दिन। वीकेण्ड संस्कृति वाले होटलों में धरना देने पहुँच गये होंगे। फिर भी हिम्मत कर कदम आगे बढ़ाया। बस स्टेशन से बाहर निकलते ही ऑटो वालों ने बारह सौ और पन्द्रह सौ में कमरों के ऑफर देने शुरू कर दिये। हम इस विपदा से पिण्ड छुड़ाकर आगे बढ़े।
बस स्टेशन के ठीक सामने सड़क के उस पार होटलों की कतारें दिख रही थीं। ताे हम भी पहुँच गये। गली में घुसते ही ठीक सामने एक लॉज दिखा। रिसेप्शन काउण्टर उसके दरवाजे के बाहर पोर्च के नीचे बना हुआ था। मैंने सीधे–सीधे डबल रूम का किराया पूछा। सामने बैठे बन्दे ने बताया कि 400 रूपये रेट है और एक ही कमरा बचा है। मुझे लगा कि और कहीं खोजने से बेहतर है कि यहीं कमरा ले लिया जाय। अगले दिन फिर देखा जाएगा। कमरा मध्यम श्रेणी का ही था फिर भी ठीक था। लेकिन मुसीबत यहीं खत्म नहीं हुई थी। कमरा लेने के लिए हम दोनों का आई डी प्रूफ चाहिए था। हमारे पास आधार कार्ड थे। मेरा तो मेरे पर्स में रहता है,संगीता का बैग में से निकालना पड़ा। कमरे में जाकर बैग खोलने की भी मुहलत नहीं थी। अभी चाहिए तो अभी चाहिए। लेकिन अगली बाधा अभी शेष थी। आई डी प्रूफ चेक करने वाले बन्दे को संगीता के आधार कार्ड में पति के नाम की जगह मेरा नाम चाहिए था। अन्यथा कमरा नहीं मिलता। क्या पता मैं किसी और की पत्नी को साथ लेकर आया होऊँ। मैंने कार्ड में उसे अपना नाम खोज कर दिखाया तब जाकर कमरा लेने की प्रक्रिया आगे बढ़ सकी। लेकिन अभी एक प्रक्रिया बाकी थी। इतनी औपचारिकताएं तो शायद किसी सरकारी कार्यालय में ही पूरी की जाती होंगी। पहले मुझे अपने आधार कार्ड की फोटो कापी कराने का आदेश मिला औेर उसके बाद उस पर साइन करने का। अगला आदेश मिला तो मैं चौंक गया–
"मैडम का अँगूठा आई डी प्रूफ पर लगवाइये।"
मैंने कहा– "यार वो बहुत ज्यादा नहीं लेकिन इतनी तो पढ़ी–लिखी है कि अपनी साइन बना सके।"
"नहीं,महिलाओं का अँगूठा ही लगेगा।"
हमें कमरा लेना था। और इस तरह की औपचारिकताओं पर बहस करने से कोई लाभ नहीं। यहाँ कहीं भी जायेंगे तो इतना तो करना ही पड़ेगा। वैसे अगले दिन हमें आभास हो गया कि हमें कमरा सस्ते में ही मिल गया था। क्योंकि रिसेप्शन काउण्टर पर बैठे बन्दे की बातों में इतने कम दाम में कमरा उठाने की कसक साफ दिखायी दे रही थी। सण्डे के दिन कोई परीक्षा थी और परीक्षार्थी भी कमरा लेने के लिए उमड़ रहे थे। इसके अलावा देर रात तक वीकेण्ड मनाने वालों ने भी धमाकेदार इण्ट्री की थी।
कमरा लेने के बाद अगला कार्यक्रम भोजन का था। 9.30 बजे तक भोजन के लिए बाहर निकले। बड़े–बड़े रेस्टोरेण्ट तो दिख रहे थे लेकिन हमें कोई छोटा और उसके साथ ही शाकाहारी रेस्टोरेण्ट चाहिए था। अगल–बगल के अधिकांश रेस्टोरेण्ट सर्वाहारी ही दिख रहे थे। पन्द्रह मिनट तक इधर–उधर भटकने के बाद हमें अपने लॉज के पास ही एक सरदार जी का छोटा सा ढाबा मिल गया। हमें भरपेट भोजन चाहिए था। कुल जमा तीन मेजें थी और मेज खाली होने के लिए हमें पाँच मिनट इंतजार करना पड़ा। सरदार जी सामने आकर खड़े हुए तो हमें आर्डर करने में कुछ सेकेण्ड लग गये। वैसे काफी पहले मैं महाराष्ट्र की एक–दो यात्राएं कर चुका था और राइस प्लेट का नाम मुझे अब भी याद था तो 50 रूपये प्लेट वाली राइस प्लेट का मैंने आर्डर कर दिया।
मेरी औरंगाबाद तक की ट्रेन यात्रा के तीन पड़ाव–
अगला भाग ः अजंता–हमारी ऐतिहासिक धरोहर (पहला भाग)
4.45 पर हम बस स्टेशन पहुँच गये। ऊबड़–खाबड़ फर्श वाला बस स्टेशन का प्रांगण। लाल–लाल बसों से भरा हुआ। खाकी वर्दी वाले भी बड़ी संख्या में दिख रहे थे। मन में डर समा गया। लेकिन जल्दी ही स्पष्ट हो गया कि ये पुलिस वाले नहीं वरन बसों के ही ड्राइवर और कण्डक्टर हैं। पता चला कि औरंगाबाद की बस प्लेटफार्म नं. एक व दो से मिलेगी। हर दस मिनट पर बस है। मन प्रसन्न हुआ कि बस तो कम से कम खोजनी नहीं पड़ेगी। लेकिन जब मौके पर पहुँचे तो यहाँ माजरा ही कुछ और था। बसें तो वास्तव में दस मिनट पर हैं लेकिन सवारियां उससे भी अधिक। शनिवार का दिन था और इसके बाद क्रिसमस के अलावा स्कूल भी कई दिनाें के लिए बन्द हो रहे थे। भीड़ बसों पर आफत बनकर टूट रही थी। उस पर भी समस्या ये कि चालीसगाँव से चलकर औरंगाबाद जाने वाली एक भी बस नहीं थी। सारी की सारी बसें धुले या शिरपुर या जलगाँव से आकर औरंगाबाद जा रहीं थीं और यहाँ उतरने वाले बहुत कम ही लोग थे। उतरने वालों के कई गुने चढ़ने वाले थे। इसलिए मारामारी मची थी। जिसको सीट चाहिए थी वह खिड़कियों से ही आक्रमण कर रहा था। उसके बाद भी इक्का–दुक्का लोगों को ही सीट मिल रही थी। मैंने सुन रखा था कि औरंगाबाद महाराष्ट्र की पर्यटन राजधानी है। अब देख भी रहा था।
बस के लिए ऐसी मारामारी देखकर मैं स्टेशन से बाहर निकला– इस फिराक में कि कहीं कोई प्राइवेट बस भी मिले तो चला जाय। एक–दो लोगों से पूछताछ भी की। लेकिन अन्य कोई साधन मिलने की संभावना नहीं दिखी। शायद महाराष्ट्र परिवहन निगम के बड़े ढाँचे ने निजी ऑपरेटरों कों ठीक से पनपने नहीं दिया है। जैसा कि हमारे उत्तर प्रदेश में परिवहन निगम के समानान्तर निजी ऑपरेटर भी अपनी गाड़ियां चलाते हैं वैसा महाराष्ट्र में तो मुझे नहीं दिखा। सच्चाई चाहे जो भी हो। हाँ रिजर्व में चलने वाली छोटी गाड़ियां अवश्य उपलब्ध हैं। अब महाराष्ट्र परिवहन निगम कितना विकसित है ये तो वही जाने। क्योंकि स्टेशन और बसें तो हैं लेकिन दोनों ही खड़खड़ाते हुए। लेकिन चिकनी सड़कें इनकी खड़खड़ाहट की आवाज को छ्पिा लेती हैं।
पहली और दूसरी बस तो हमने इस उम्मीद में छोड़ दी कि शायद तीसरी में जगह मिल जाय। लेकिन उसके बाद हमने भी हमले तेज कर दिये। बैग लेकर बस के गेट से चढ़ना भी मुश्किल था। लेकिन अपने एक आक्रमण में हम भी सफल हुए। सबसे पीछे की सीट पर बैठी एक महिला ने हमारी मदद की। दोनों बैग अंदर हो गये। संगीता भी गेट से अंदर प्रवेश कर एक सीट कब्जाने में सफल हो गयी लेकिन सीट पर बैग रखे होने के बावजूद दूसरी सीट के लिए झगड़ा करना पड़ गया। कुल मिलाकर बस में सीट हथियाने में हम लोग सफल हो गये। देर आयत दुरूस्त आयत। बसों की पर्याप्त संख्या होने के बावजूद घण्टे भर लग गये। पौने पाँच बजे हम चालीसगाँव के बस स्टेशन पहुँचे थे लेकिन बस मिलने और उसे रवाना होने में पौने छः हो गये। चालीसगाँव से औरंगाबाद की दूरी 90 किमी है। बस का किराया 102 रूपये। बस ठीक–ठाक चली और तीन घण्टे में अर्थात 8.45 बजे औरंगाबाद सेन्ट्रल बस स्टेशन पहुँच गयी। चालीसगाँव से लगभग 20 किमी चलने के बाद सड़क पहाड़ियों की एक छोटी सी श्रृंखला को पार करती है। इन पहाड़ियों में गौताला वन्यजीव अभयारण्य स्थित है। इन्हीं पहाड़ियों में पीतलखोरा की गुफाएं भी स्थित हैं जहाँ जाने की योजना हमने बनायी थी लेकिन जा नहीं सके थे। इन पहाड़ियों में ट्रेकिंग बहुत आनन्ददायक हाेती।
रात के पौने नाै बजे जब हम औरंगाबाद पहुँचे तो मन कई आशंकाओं से डर रहा था। एक तो रात में शहर का भूगोल समझ में नहीं आता है। साथ ही रात में कमरों के किराये भी बढ़ जाते हैं। उस पर भी अंजान जगह। को़ढ़ में खाज यह कि शनिवार का दिन। वीकेण्ड संस्कृति वाले होटलों में धरना देने पहुँच गये होंगे। फिर भी हिम्मत कर कदम आगे बढ़ाया। बस स्टेशन से बाहर निकलते ही ऑटो वालों ने बारह सौ और पन्द्रह सौ में कमरों के ऑफर देने शुरू कर दिये। हम इस विपदा से पिण्ड छुड़ाकर आगे बढ़े।
बस स्टेशन के ठीक सामने सड़क के उस पार होटलों की कतारें दिख रही थीं। ताे हम भी पहुँच गये। गली में घुसते ही ठीक सामने एक लॉज दिखा। रिसेप्शन काउण्टर उसके दरवाजे के बाहर पोर्च के नीचे बना हुआ था। मैंने सीधे–सीधे डबल रूम का किराया पूछा। सामने बैठे बन्दे ने बताया कि 400 रूपये रेट है और एक ही कमरा बचा है। मुझे लगा कि और कहीं खोजने से बेहतर है कि यहीं कमरा ले लिया जाय। अगले दिन फिर देखा जाएगा। कमरा मध्यम श्रेणी का ही था फिर भी ठीक था। लेकिन मुसीबत यहीं खत्म नहीं हुई थी। कमरा लेने के लिए हम दोनों का आई डी प्रूफ चाहिए था। हमारे पास आधार कार्ड थे। मेरा तो मेरे पर्स में रहता है,संगीता का बैग में से निकालना पड़ा। कमरे में जाकर बैग खोलने की भी मुहलत नहीं थी। अभी चाहिए तो अभी चाहिए। लेकिन अगली बाधा अभी शेष थी। आई डी प्रूफ चेक करने वाले बन्दे को संगीता के आधार कार्ड में पति के नाम की जगह मेरा नाम चाहिए था। अन्यथा कमरा नहीं मिलता। क्या पता मैं किसी और की पत्नी को साथ लेकर आया होऊँ। मैंने कार्ड में उसे अपना नाम खोज कर दिखाया तब जाकर कमरा लेने की प्रक्रिया आगे बढ़ सकी। लेकिन अभी एक प्रक्रिया बाकी थी। इतनी औपचारिकताएं तो शायद किसी सरकारी कार्यालय में ही पूरी की जाती होंगी। पहले मुझे अपने आधार कार्ड की फोटो कापी कराने का आदेश मिला औेर उसके बाद उस पर साइन करने का। अगला आदेश मिला तो मैं चौंक गया–
"मैडम का अँगूठा आई डी प्रूफ पर लगवाइये।"
मैंने कहा– "यार वो बहुत ज्यादा नहीं लेकिन इतनी तो पढ़ी–लिखी है कि अपनी साइन बना सके।"
"नहीं,महिलाओं का अँगूठा ही लगेगा।"
हमें कमरा लेना था। और इस तरह की औपचारिकताओं पर बहस करने से कोई लाभ नहीं। यहाँ कहीं भी जायेंगे तो इतना तो करना ही पड़ेगा। वैसे अगले दिन हमें आभास हो गया कि हमें कमरा सस्ते में ही मिल गया था। क्योंकि रिसेप्शन काउण्टर पर बैठे बन्दे की बातों में इतने कम दाम में कमरा उठाने की कसक साफ दिखायी दे रही थी। सण्डे के दिन कोई परीक्षा थी और परीक्षार्थी भी कमरा लेने के लिए उमड़ रहे थे। इसके अलावा देर रात तक वीकेण्ड मनाने वालों ने भी धमाकेदार इण्ट्री की थी।
कमरा लेने के बाद अगला कार्यक्रम भोजन का था। 9.30 बजे तक भोजन के लिए बाहर निकले। बड़े–बड़े रेस्टोरेण्ट तो दिख रहे थे लेकिन हमें कोई छोटा और उसके साथ ही शाकाहारी रेस्टोरेण्ट चाहिए था। अगल–बगल के अधिकांश रेस्टोरेण्ट सर्वाहारी ही दिख रहे थे। पन्द्रह मिनट तक इधर–उधर भटकने के बाद हमें अपने लॉज के पास ही एक सरदार जी का छोटा सा ढाबा मिल गया। हमें भरपेट भोजन चाहिए था। कुल जमा तीन मेजें थी और मेज खाली होने के लिए हमें पाँच मिनट इंतजार करना पड़ा। सरदार जी सामने आकर खड़े हुए तो हमें आर्डर करने में कुछ सेकेण्ड लग गये। वैसे काफी पहले मैं महाराष्ट्र की एक–दो यात्राएं कर चुका था और राइस प्लेट का नाम मुझे अब भी याद था तो 50 रूपये प्लेट वाली राइस प्लेट का मैंने आर्डर कर दिया।
मेरी औरंगाबाद तक की ट्रेन यात्रा के तीन पड़ाव–
अगला भाग ः अजंता–हमारी ऐतिहासिक धरोहर (पहला भाग)
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
Bhai sahab sab thik..Thoda swachta ka bhi dhyaan rakhaa jaaye to uchit... Chai pee ke glass bahar fenkne ki aasani bade garv ke saath likhi aapne... Kamaal hai...
ReplyDeleteक्षमा चाहूँगा भाई अगर मेरी बात से गलत संदेश गया है। लेकिन मेरे लिखने का मतलब वह कतई नहीं था जो आप सोच रहे हैं। मैंने तो उसी पर व्यंग किया है जो कि एक सामान्य उत्तर भारतीय रेलयात्री करता है। मैंने वही लिखा है जो सच्चाई है। आदर्शवादी बातें लिखकर मैं भी अच्छा बन सकता हूँ। जहाँ तक मेरी बात है तो मैं अपना पूरा कूड़ा एक थैले में इकट्ठा करके रखता हूँ और डस्टबिन में ही डालता हूँ। अगर आप चाहेंगे तो उसकी फोटो भी आपको भेज सकता हूँ। और हाँ गंदगी फैलाने पर मुझे गर्व की अनुभूति बिल्कुल नहीं होती।
Delete👍👍👍
Deleteएक लेखक होने में समाज को खड़ा करना पड़ता है और मैं समझ रहा था कि आप केवल वही लिख रहे हैं जैसा लोग करते हैं।
👍👍👍
Deleteवाह इस बार क्रिसमस मि छुट्टियां औरंगाबाद में बहुत बढ़िया....मेरा होमटाउन है औरंगाबाद
ReplyDeleteधन्यवाद प्रतीक जी। मुझे पता नहीं था कि आपका होम टाउन औरंगाबाद ही है। वैसे जाड़े की छुटि्टयां बिताने के लिए औरंगाबाद अच्छी जगह है।
Deleteहा हा हा। बहुत बढि़या भई बरिजेस । वाह क्या खूब शैली है। हम तो फैन हो गये।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद मंजीत जी। आगे भी आते रहिए।
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