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जब मैं ओरछा पहुँचा तो अभी अंधेरा होने में काफी समय था। ऑटो स्टैण्ड बिल्कुल ओरछा के मुख्य चौराहे के पास ही है जहाँ से पूरब की ओर ओरछा का किला और पश्चिम की ओर चतुर्भुज मन्दिर बिल्कुल पास ही दिखता है। रामराजा मन्दिर भी पास ही है। कमरा ढूँढ़ने में मैंने कुछ तेजी दिखायी ताकि समय का सदुपयोग करते हुए शाम के समय भी ओरछा का कुछ दृश्यावलोकन किया जा सके। ओरछा के प्रसिद्ध रामराजा मन्दिर के गेट के पास ही होटल में मैंने कमरा बुक कर लिया। कमरा लेकर मैं अन्दर चला गया। फिर जब 10 मिनट बाद बाहर जाने के लिए निकला तो होटल के काउण्टर पर एक नया लड़का बैठा हुआ था।
उसने बिना किसी लाग–लपेट के,बिल्कुल धड़ल्ले से मुझसे पूछा– 'आपने कितने में कमरा लिया?'
मैंने भी दनदनाते हुए जवाब दिया– 'चार सौ में।'
लड़का– 'यही कमरा अगर आप गोआईबीबो की वेबसाइट से बुक करते तो ऑफर में आपको इतने का ही पड़ता लेकिन मुझे नौ सौ रूपये मिलते।'
मैंने सोचते हुए जवाब दिया– 'आगे से ऐसा ही करूँगा।'
मैंने विचार किया तो लगा कि यह आइडिया भले ही उसके लिए फायदेमंद हो मेरे लिए नुकसानदेह ही होता। कारण कि इस तरह की बुकिंग में भरसक पेमेंट पूरा ही करना पड़ता है। भले ही बाद में वालेट में कैशबैक मिलता है। साथ ही यह कैशबैक उसी वॉलेट में ही रहता है और फिर कमरा बुक करने के ही काम आता है। दूसरे किसी काम में इस पैसे का उपयोग नहीं किया जा सकता है। तो अगर बहुत मजबूरी न हो तो इस तरह की आनलाइन मैं प्री–बुकिंग करने से रहा। हाँ अगर बुकिंग में ही छूट मिले तो और बात है।
जल्दबाजी करने का फायदा यह हुआ कि मैं 5.20 तक चतुर्भुज मन्दिर पहुँच गया। इस समय ओरछा के किले में जाने के लिए पर्याप्त समय नहीं था। साथ ही इसका उपयुक्त समय भी नहीं था। चतुर्भुज मन्दिर में दशहरे की छुट्टी में पिकनिक मनाने और सेल्फी खींचने के लिए आये हुए स्थानीय लोगों की भीड़ लगी हुई थी। भीड़ से बचते–बचाते हुए मैं भी मन्दिर की फोटो खींचता रहा। अन्य लोगों की तरह एक विदेशी युगल भी मन्दिर की फोटो खींच रहा था। मन्दिर के साथ–साथ वे मन्दिर पर उछल–कूद कर रहे बंदरों की फोटो भी खींच रहे थे। उन्हें बंदरों की फोटो खींचते देख कुछ स्वयंसेवक प्रकट हो गये थे जो उन्हें अगल–बगल और कुछ दूरी पर कूद रहे बंदरों की तरफ इशारा करके दिखाने लगे। इस स्वयंसेवा से परेशान होकर वह युगल मन्दिर से बाहर चला गया।
तीन या चार मंजिला चतुर्भुज मन्दिर दूर से देखने पर किसी किले या महल जैसा लगता है। चतुर्भज मन्दिर का निर्माण एक 15 फीट ऊँचे चबूतरे पर किया गया है। इस ऊँचाई तक चढ़ने के लिए काफी सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं जिन्हें मैं गिन तो नहीं पाया लेकिन 50 के आस–पास सीढ़ियां जरूर होंगी। मन्दिर की कुल ऊँचाई 344 फीट है। यह मन्दिर ओरछा किले के सामने,रामराजा मन्दिर के बगल में स्थित है। इस मंदिर का निर्माण बुंदेला राजा मधुकर शाह (1554-1592) द्वारा शुरू किया गया लेकिन सम्भवतः मुगलों के आक्रमण और इस दौरान राजकुमार होरलदेव की मृत्यु की वजह से इसका निर्माण पूरा नहीं हो सका और इसे उनके पुत्र वीर सिंह देव (1605-1627) द्वारा पूरा किया गया।
किंवदंती है कि मधुकर शाह ने इसका निर्माण अपनी पत्नी रानी गणेशकुंवरी के आराध्य देव राजा राम के लिए किया। राजा मधुकर शाह कृष्ण भक्त थे जबकि रानी की भक्ति राम में थी। निर्माणाधीन मंदिर में स्थापित की जाने वाली मूर्ति प्राप्त करने के लिए रानी अयोध्या गयीं और वहाँ भगवान राम की तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान राम ने उन्हें बालरूप में दर्शन दिए और ओरछा चलने के लिए तैयार हो गये। लेकिन इससे पहले भगवान ने रानी के सामने कुछ शर्तें रखीं। एक शर्त यह थी कि ओरछा में पहुँचने के बाद वह राम राजा कहलायेंगे और ओरछा में दूसरा कोई राजा नहीं होगा। दूसरी शर्त यह थी एक बार उन्हें जहाँ स्थापित कर दिया जायेगा वे वहीं रह जायेंगे। अपनी शर्तों के साथ राम राजा ओरछा आये। चूँकि अभी चतुर्भुज मन्दिर का निर्माण कार्य पूर्ण नहीं हुआ था इसलिए रानी ने राम को अपने महल में ही स्थान दे दिया। लेकिन जब मंदिर में मूर्ति की स्थापना का समय आया तो मूर्ति अपनी शर्त के अनुसार अपने स्थान पर ही जड़ हो गयी,वहां से हिली ही नहीं। इस घटना के बाद रानी के महल को ही रामराजा मन्दिर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। बाद में चतुर्भुज मन्दिर में भगवान विष्णु की मूर्ति की स्थापना कर दी गयी।
वर्तमान ओरछा को हम बुंदेला राजाओं के नाम से जानते हैं लेकिन ओरछा का इतिहास बहुत प्राचीन है। ओरछा से 115 किलोमीटर की दूरी पर स्थित चन्देरी प्राचीन चेदि महाजनपद का उत्तराधिकारी है। इसका क्षेत्र सम्भवतः पूरे बुन्देलखण्ड में विस्तृत था। कालान्तर में बुन्देलखण्ड पर गुप्तवंश,कलचुरी एवं चन्देल शासकों ने भी शासन किया। बुन्देलखण्ड में पाये जाने वाले इन शासकों के स्मारक और अभिलेख इसके प्रमाण हैं। बुन्देलखण्ड में बुंदेला शासकों का इतिहास भी काफी प्राचीन है। वैसे ओरछा राज्य का आरम्भ बुंदेला राजा रूद्रप्रताप से माना जाता है। रूद्रप्रताप ने 1530 में ओरछा राज्य की स्थापना की। उन्हाेंने अपनी राजधानी गढ़कुण्डार से स्थानान्तरित करके ओरछा में स्थापित की। गढ़कुण्डार वह ऐतिहासिक स्थान है जो बहुत कम चर्चित है लेकिन वृन्दावनलाल वर्मा ने इसे अपनी जादुई लेखनी से अमर कर दिया। राजा रूद्रप्रताप दिल्ली के लोदी शासकों के समकालीन थे। रूद्रप्रताप के बाद ओरछा पर भारतीचन्द्र (1531-1554 ई.) ने शासन किया। भारतीचन्द्र के उत्तराधिकारी उनके छोटे भाई मधुकर शाह थे जिन्होंने चतुर्भुज मन्दिर का निर्माण आरम्भ किया। मधुकर शाह के समय अकबर ने ओरछा पर चढ़ाई की जिसमें मधुकर शाह पराजित हो गये। मधुकर शाह के पुत्र वीर सिंह देव ने अकबर के विरूद्ध विद्रोह में जहाँगीर की सहायता की जिसके परिणामस्वरूप जहाँगीर के शासक बनने पर वीरसिंह ओरछा के स्वतंत्र शासक बने। वीरसिंह देव ने ओरछा में 1605 से 1627 तक शासन किया और इसी काल में ओरछा में जहाँगीर महल और अन्य कई महत्वपूर्ण मन्दिर बने। वीरसिंह देव के शासन काल में ओरछा राज्य अपनी सर्वोच्च ऊँचाई पर पहुँचा। वीरसिंहदेव के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र जुझारसिंह ओरछा के शासक बने। 1633 में जुझारसिंह ने गौड़ राजा प्रेमशाह पर आक्रमण करके चौरागढ़ जीता लेकिन इसके साथ ही शाहजहाँ ने ओरछा पर आक्रमण कर दिया जिसके फलस्वरूप जुझारसिंह को ओरछा छोड़कर दक्षिण की ओर जाना पड़ा। वीरसिंह के बाद के शासकों में चम्पतराय और छत्रसाल का नाम महत्वपूर्ण है। छत्रसाल ने स्वतंत्र बुन्देलखण्ड राज्य की स्थापना की सर्वाधिक कोशिश की। छत्रसाल के समय से ही बुन्देलखण्ड पर मराठा शासकों का प्रभाव आरम्भ हो गया और छत्रसाल के बाद धीरे–धीरे बुन्देलखण्ड दूसरे शासकों के अधीन हो गया।
तीन या चार मंजिला चतुर्भुज मन्दिर दूर से देखने पर किसी किले या महल जैसा लगता है। चतुर्भज मन्दिर का निर्माण एक 15 फीट ऊँचे चबूतरे पर किया गया है। इस ऊँचाई तक चढ़ने के लिए काफी सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं जिन्हें मैं गिन तो नहीं पाया लेकिन 50 के आस–पास सीढ़ियां जरूर होंगी। मन्दिर की कुल ऊँचाई 344 फीट है। यह मन्दिर ओरछा किले के सामने,रामराजा मन्दिर के बगल में स्थित है। इस मंदिर का निर्माण बुंदेला राजा मधुकर शाह (1554-1592) द्वारा शुरू किया गया लेकिन सम्भवतः मुगलों के आक्रमण और इस दौरान राजकुमार होरलदेव की मृत्यु की वजह से इसका निर्माण पूरा नहीं हो सका और इसे उनके पुत्र वीर सिंह देव (1605-1627) द्वारा पूरा किया गया।
किंवदंती है कि मधुकर शाह ने इसका निर्माण अपनी पत्नी रानी गणेशकुंवरी के आराध्य देव राजा राम के लिए किया। राजा मधुकर शाह कृष्ण भक्त थे जबकि रानी की भक्ति राम में थी। निर्माणाधीन मंदिर में स्थापित की जाने वाली मूर्ति प्राप्त करने के लिए रानी अयोध्या गयीं और वहाँ भगवान राम की तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान राम ने उन्हें बालरूप में दर्शन दिए और ओरछा चलने के लिए तैयार हो गये। लेकिन इससे पहले भगवान ने रानी के सामने कुछ शर्तें रखीं। एक शर्त यह थी कि ओरछा में पहुँचने के बाद वह राम राजा कहलायेंगे और ओरछा में दूसरा कोई राजा नहीं होगा। दूसरी शर्त यह थी एक बार उन्हें जहाँ स्थापित कर दिया जायेगा वे वहीं रह जायेंगे। अपनी शर्तों के साथ राम राजा ओरछा आये। चूँकि अभी चतुर्भुज मन्दिर का निर्माण कार्य पूर्ण नहीं हुआ था इसलिए रानी ने राम को अपने महल में ही स्थान दे दिया। लेकिन जब मंदिर में मूर्ति की स्थापना का समय आया तो मूर्ति अपनी शर्त के अनुसार अपने स्थान पर ही जड़ हो गयी,वहां से हिली ही नहीं। इस घटना के बाद रानी के महल को ही रामराजा मन्दिर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। बाद में चतुर्भुज मन्दिर में भगवान विष्णु की मूर्ति की स्थापना कर दी गयी।
वर्तमान ओरछा को हम बुंदेला राजाओं के नाम से जानते हैं लेकिन ओरछा का इतिहास बहुत प्राचीन है। ओरछा से 115 किलोमीटर की दूरी पर स्थित चन्देरी प्राचीन चेदि महाजनपद का उत्तराधिकारी है। इसका क्षेत्र सम्भवतः पूरे बुन्देलखण्ड में विस्तृत था। कालान्तर में बुन्देलखण्ड पर गुप्तवंश,कलचुरी एवं चन्देल शासकों ने भी शासन किया। बुन्देलखण्ड में पाये जाने वाले इन शासकों के स्मारक और अभिलेख इसके प्रमाण हैं। बुन्देलखण्ड में बुंदेला शासकों का इतिहास भी काफी प्राचीन है। वैसे ओरछा राज्य का आरम्भ बुंदेला राजा रूद्रप्रताप से माना जाता है। रूद्रप्रताप ने 1530 में ओरछा राज्य की स्थापना की। उन्हाेंने अपनी राजधानी गढ़कुण्डार से स्थानान्तरित करके ओरछा में स्थापित की। गढ़कुण्डार वह ऐतिहासिक स्थान है जो बहुत कम चर्चित है लेकिन वृन्दावनलाल वर्मा ने इसे अपनी जादुई लेखनी से अमर कर दिया। राजा रूद्रप्रताप दिल्ली के लोदी शासकों के समकालीन थे। रूद्रप्रताप के बाद ओरछा पर भारतीचन्द्र (1531-1554 ई.) ने शासन किया। भारतीचन्द्र के उत्तराधिकारी उनके छोटे भाई मधुकर शाह थे जिन्होंने चतुर्भुज मन्दिर का निर्माण आरम्भ किया। मधुकर शाह के समय अकबर ने ओरछा पर चढ़ाई की जिसमें मधुकर शाह पराजित हो गये। मधुकर शाह के पुत्र वीर सिंह देव ने अकबर के विरूद्ध विद्रोह में जहाँगीर की सहायता की जिसके परिणामस्वरूप जहाँगीर के शासक बनने पर वीरसिंह ओरछा के स्वतंत्र शासक बने। वीरसिंह देव ने ओरछा में 1605 से 1627 तक शासन किया और इसी काल में ओरछा में जहाँगीर महल और अन्य कई महत्वपूर्ण मन्दिर बने। वीरसिंह देव के शासन काल में ओरछा राज्य अपनी सर्वोच्च ऊँचाई पर पहुँचा। वीरसिंहदेव के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र जुझारसिंह ओरछा के शासक बने। 1633 में जुझारसिंह ने गौड़ राजा प्रेमशाह पर आक्रमण करके चौरागढ़ जीता लेकिन इसके साथ ही शाहजहाँ ने ओरछा पर आक्रमण कर दिया जिसके फलस्वरूप जुझारसिंह को ओरछा छोड़कर दक्षिण की ओर जाना पड़ा। वीरसिंह के बाद के शासकों में चम्पतराय और छत्रसाल का नाम महत्वपूर्ण है। छत्रसाल ने स्वतंत्र बुन्देलखण्ड राज्य की स्थापना की सर्वाधिक कोशिश की। छत्रसाल के समय से ही बुन्देलखण्ड पर मराठा शासकों का प्रभाव आरम्भ हो गया और छत्रसाल के बाद धीरे–धीरे बुन्देलखण्ड दूसरे शासकों के अधीन हो गया।
चतुर्भुज मन्दिर से जब मैं बाहर निकला तो अभी भी कुछ उजाला था तो मैंने तेजी से बेतवा नदी की ओर कदम बढ़ाये और लगभग एक किमी की दूरी तय कर बेतवा पर बने पुराने पुल पर पहुँच गया। ऊँचे पहाड़ों पर प्रवाहित होती किसी तीव्रगामी नदी की तरह बेतवा अपनी चंचलता से हर किसी को सम्मोहित कर रही थी। यहाँ झाँसी से आकर ओरछा होते हुए टीकमगढ़ जाने वाली सड़क,एक सँकरे पुल के माध्यम से बेतवा नदी को पार करती है। यहाँ बिना रेलिंग वाले सिंगल पुल पर गुजरती चारपहिया गाड़ियों के बगल में किसी तरह खड़े होकर सेल्फी खींचना किसी स्टंट से कम नहीं लग रहा था फिर भी लोग सेल्फी का माेह नहीं छोड़ रहे थे। मैंने भी दो–चार बार ऐसा दुस्साहस कर दिखाया। वास्तव में फोटो खींचना केवल हुनर का ही नहीं कलेजे का भी काम है,ऐसी जगहों पर आकर यह भी पता चल जाता है।
पत्थरों के बीच में से तीव्र वेग से प्रवाहित होती बेतवा की धारा बहुत ही सम्मोहक लग रही थी। मैं भी इसके आकर्षण में तब तक बँधा रहा जबतक कि अँधेरा न हो गया। बेतवा के किनारे खड़े होकर मुझे असीम शान्ति का अनुभव हो रहा था। पाषाण शिलाओं से संघर्ष करती बेतवा की लहरों का शोर राम के राजा होने की दुहाई दे रहा था। और फिर राम ही जहाँ के राजा हों वहाँ शान्ति क्यों न हो। वस्तुतः ओरछा आत्मिक शान्ति प्रदान करने वाला स्थान है। गोस्वामी बालमुकुन्द ने लिखा है–
"नदी बेतवा तीर पर,बसा ओरछा धाम।
कष्ट मिटे संकट टले,मन पावे विश्राम।"
बेतवा से लौटकर जब मैं अपने होटल के पास पहुँचा तो रामराजा मन्दिर में दशहरे के समय की बिजली की सजावट को देखने से खुद को नहीं रोक सका। काफी देर तक मैं मन्दिर के प्रांगण में की गयी इस सजावट काे देखता रहा। दशहरे की वजह से मन्दिर के अन्दर दर्शन के लिए भीड़ लगी थी।
एक राज्य के रूप में ओरछा और उसके राजा राम। कितना दिलचस्प है यह जानना कि राम यहाँ देवता नहीं बल्कि राजा हैं। मुख्य द्वार के सामने एक फव्वारे को सुन्दर लाइटों से सजाया गया था। पास के ही एक भवन में वाद्ययंत्रों की सुरलहरियों के साथ रामचरितमानस की पंक्तियां गूँज रही थीं। मन्दिर से बाहर निकला तो भोजन की तलाश की। वैसे तलाश करनी नहीं पड़ी। ओरछा में लगभग सब कुछ रामराजा मन्दिर के आस–पास संकेन्द्रित है।
पत्थरों के बीच में से तीव्र वेग से प्रवाहित होती बेतवा की धारा बहुत ही सम्मोहक लग रही थी। मैं भी इसके आकर्षण में तब तक बँधा रहा जबतक कि अँधेरा न हो गया। बेतवा के किनारे खड़े होकर मुझे असीम शान्ति का अनुभव हो रहा था। पाषाण शिलाओं से संघर्ष करती बेतवा की लहरों का शोर राम के राजा होने की दुहाई दे रहा था। और फिर राम ही जहाँ के राजा हों वहाँ शान्ति क्यों न हो। वस्तुतः ओरछा आत्मिक शान्ति प्रदान करने वाला स्थान है। गोस्वामी बालमुकुन्द ने लिखा है–
"नदी बेतवा तीर पर,बसा ओरछा धाम।
कष्ट मिटे संकट टले,मन पावे विश्राम।"
बेतवा से लौटकर जब मैं अपने होटल के पास पहुँचा तो रामराजा मन्दिर में दशहरे के समय की बिजली की सजावट को देखने से खुद को नहीं रोक सका। काफी देर तक मैं मन्दिर के प्रांगण में की गयी इस सजावट काे देखता रहा। दशहरे की वजह से मन्दिर के अन्दर दर्शन के लिए भीड़ लगी थी।
एक राज्य के रूप में ओरछा और उसके राजा राम। कितना दिलचस्प है यह जानना कि राम यहाँ देवता नहीं बल्कि राजा हैं। मुख्य द्वार के सामने एक फव्वारे को सुन्दर लाइटों से सजाया गया था। पास के ही एक भवन में वाद्ययंत्रों की सुरलहरियों के साथ रामचरितमानस की पंक्तियां गूँज रही थीं। मन्दिर से बाहर निकला तो भोजन की तलाश की। वैसे तलाश करनी नहीं पड़ी। ओरछा में लगभग सब कुछ रामराजा मन्दिर के आस–पास संकेन्द्रित है।
पाँचवा दिन–
आज मेरी इस यात्रा का पाँचवा दिन था। आज मुझे ओरछा का किला फतह करना था। सुबह 7 बजे ही मैं कमरे से निकल पड़ा। मालूम हुआ कि किला 9 बजे खुलता है इसलिए तब तक बेतवा के किनारे निकल पड़ा। टहलते हुए जब बेतवा पुल पर पहुँचा तो पूरब से आती सूरज की किरणें पश्चिम में स्थित,बेतवा के किनारे बनी छत्रियों पर पड़ कर उन्हें सुनहला बना रही थीं। कुछ देर तक मैं बेतवा की लहरों से निकलती कल–कल ध्वनि में ओरछा की इतिहास–गाथाएं सुनता रहा और उसके बाद सूरज के पीले रंग में दमकती पश्चिम में बनी छत्रियों की ओर निकल पड़ा। रास्ता पूछने की कोई खास जरूरत नहीं। सब कुछ दूर से ही दिखता है। उसे देखते हुए अपनी दिशा बनाये रखिये। सही जगह पर पहुँच जायेंगे।
यहाँ पहुँचने पर एक के बाद एक कई छत्रियां दिखाई पड़ने लगीं। पुरातत्व विभाग के एक बोर्ड पर लिखी सूचना से यह ज्ञात हुआ कि बेतवा के किनारे इस स्थान पर बुन्देला राजाओं तथा राजपरिवार के सदस्यों की 15 छत्रियां हैं। इनमें मधुकर शाह,वीरसिंह देव,जसवन्त सिंह,उद्धत सिंह,पहाड़ सिंह इत्यादि की छत्रियां शामिल हैं। अधिकांश छत्रियां तीन मंजिला हैं। छत्रियों के आस–पास घूमने के बाद मैं फिर से रामराजा मन्दिर के सामने स्थित मुख्य चौराहे पहुँच गया। चौराहे से कुछ ही दूरी पर हरदौल वाटिका है। रास्ता पूछते–पूछते मैं यहाँ भी पहुँच गया। हरदौल वाटिका सम्भवतः उस जमाने में राजघराने का घूमने–फिरने का स्थान था। यह आज के जमाने के पार्क जैसा है। मुख्य द्वार से अन्दर प्रवेश करने पर यहाँ पक्के तालाब जैसी संरचना दिखाई पड़ रही थी जिसमें वर्तमान में पानी नहीं था। हो सकता है उस समय यह स्विमिंग पूल की तरह से रहा हो। इस वाटिका को फूल बाग के नाम से भी जाना जाता है। हरदौल वाटिका के अन्दर एक दुमंजिला महल भी है। हरदौल वाटिका के पास ही पालकी महल है। पालकी महल के बगल में दो मीनारें या पिलर बने हुए हैं। इन्हें सावन–भादो नाम से जाना जाता है। इन्हें वायुयंत्र के रूप में बनाया गया था। इनके नीचे बने तहखाने में राजपरिवार गर्मी के मौसम में ठण्डी वायु का आनन्द लेता था। इन मीनारों के बारे में किंवदन्ती है कि वर्षा ऋतु में सावन खत्म होने और भादो शुरू होने के समय ये दाेनो मीनारें आपस में मिल जाती थीं।
इतना कुछ घूमने में नौ बज गये थे। अब मुझे लग रहा था कि भोजन और रूम से चेकआउट करके ही किले में प्रवेश करना ठीक रहेगा। सो यह दोनों काम करने के बाद 10 बजे मैं किले में पहुँचा।
किले के गेट से अन्दर जाकर मैंने ज्योंही टिकट लिया एक गाइड महोदय पीछे पड़ गये। मैंने कहा मैं अपने मन से ही घूम लूँगा। पुरातत्व विभाग ने काफी कुछ संकेतक लगा रखे हैं। गाइड महोदय का तर्क था कि आप सब कुछ नहीं जान पायेंगे। मेरा तर्क था कि सब कुछ तो कोई नहीं बता पायेगा। मैंने यह कहकर उनसे पीछा छुड़ाया कि आप बतायेंगे ज्यादा,घुमाएंगे कम और मुझे घूमना ज्यादा है। मेन गेट पर ही पूरे किला परिसर का एक नजरी नक्शा एक बोर्ड पर अंकित है। मैंने मोबाइल से उसकी फोटो ले ली। अब इसके बाद मुझे किसी गाइड की कोई जरूरत नहीं थी। नक्शे में बताये गये रास्ते के हिसाब से मैं चल पड़ा।
नक्शे के हिसाब से पहले व दूसरे स्थान पर क्रमशः कँटीला दरवाजा और टिकट काउण्टर के बाद तीसरा स्थान है राजा महल। नक्शे में चौदहवें स्थान पर जहाँगीर महल है। लेकिन अवस्थिति के हिसाब से राजा महल और जहाँगीर महल बहुत दूर नहीं हैं। किले में आने वाले पर्यटकाें और गाइडों के लिए यही दो भवन मुख्य लक्ष्य थे। इन दो के अलावा किसी तीसरी जगह पर इक्के–दुक्के लोग ही जा रहे थे। पूरा किला घूमना तो मेरे जैसे बेवकूफों के ही जिम्मे था। इसलिए मैं बिल्कुल नक्शे के हिसाब से चल रहा था। राजा महल में जब मैंने प्रवेश किया तो टिकट की जाँच हुई। मैं पहली ही नजर में फेल हो गया। कैमरे का टिकट लेना मैं भूल गया था। चेक करने वाले व्यक्ति ने मुझे परेशान होता देख सौजन्यतावश उसी टिकट पर हाथ से कुछ लिखकर कैमरे की फीस मुझसे वहीं जमा करा ली। मेरी परेशानी दूर हुई। अभी मैं राजा महल की कुछ फोटो खींच ही रहा था कि वही गाइड महोदय,जो मुझे गेट पर मिले थे,कुछ लोगों की भीड़ अपने पीछे लिए महल में दाखिल हो गये। मैं भी उस भीड़ के पीछे खड़ा हो गया और उनका भाषण सुनने लगा।
राजा महल के निर्माण का आरम्भ राजा रूद्रप्रताप (1501-1531) ने कराया। महल के मुख्य भाग का निर्माण उनके बड़े पुत्र राजा भारती चन्द्र (1531-1554) के शासन काल के दौरान हुआ। शेष भाग का निर्माण राजा मधुकर शाह (1554-1592) ने कराया। पाँच मंजिला यह महल आकार में वर्गाकार है तथा दो खण्डों में बना है। आवासीय कक्षों के अतिरिक्त दीवाने आम तथा दीवाने खास इसके प्रमुख दर्शनीय भाग हैं। इनमें जगह–जगह भित्ति चित्रों का अंकन किया गया है। एक स्थान पर छत में भी सुन्दर चित्रकारी की गयी है।
राजा महल देखने के बाद सारे लोग वापस मुड़कर जहाँगीर महल जा रहे थे। मैं पीछे न मुड़कर नक्शे के हिसाब से आगे बढ़ा तो लगा कि लोगों का वापस जाना आश्चर्यजनक नहीं है। आगे की ओर तमाम भवन हैं लेकिन अधिकांश खण्डहर में तब्दील हो चुके हैं। मैं इन खण्डहरों की फोटो खींचते चलता रहा। राजा महल के बाद क्रमशः शीश महल,रायमन दउवा की कोठी,इन्द्रजीत सिंह का अखाड़ा,तमीरात की कोठी और हमीर की कोठी तक गया। इन खण्डहरों में अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था। पेड़ों और झड़ियों से ढके इन सुनसान खण्डहरों में केवल चिड़ियों और कीट–पतंगों की आवाजें सुनाई दे रही थीं। एक बार तो भूत–प्रेत का भी खयाल आया। लेकिन तब तक किले की दीवार में एक दरवाजा दिखा। मैं उस की ओर बढ़ा तो बाहर बेतवा दिखाई पड़ी। मैं बाहर निकल गया। वहाँ भी नदी की एक सँकरी धारा और इधर–उधर बिखरे पड़े पत्थरों के अलावा कुछ नहीं था। लेकिन पत्थरों में भी सौन्दर्य कहाँ कम होता है। सुनसान स्थान पर थोड़ी देर पत्थरों पर उछलने कूदने के बाद में मैं फिर से किले के अन्दर आ गया। यहाँ से बारूद खाना,बकस राय की काेठी,पुरूषोत्तम दास का मकान,दरोगा की कोठी,ऊँटखाना,हमामखाना,शाही दरवाजा वगैरह के खण्डहरों को देखते और इनकी फोटो खींचते हुए राय प्रवीन महल पहुँच गया। शीश महल में मध्य प्रदेश पर्यटन द्वारा होटल का निर्माण किया गया है।
राय प्रवीन महल इस किले में जहाँगीर महल और राजा महल के बाद तीसरी महत्वपूर्ण इमारत है। यह एक छोटा सा महल है जिसे 1572 में इन्द्रजीत सिंह ने अपने महल की कवयित्री,गायिका व नर्तकी राय प्रवीण के लिए बनवाया था। इसके आस–पास और भी कुछ इमारतों के खण्डहर हैं। अब मेरे लिए जहाँगीर महल ही बच गया था। मैं तेज धूप से पसीने–पसीने हो रहा था। सिर की टोपी और पीठ पर रगड़ता बैग भी पसीने से भीग रहे थे। तो एक जगह एक पेड़ की छाया में बैठकर पीठ पर लदा बैग उतारा,पानी पिया और कुछ देर आराम किया।
पेड़ की छाया में कुछ देर आराम करने के बाद किले के शेष भाग का चक्कर लगाते हुए मैं पुनः मेन गेट के पास से गुजरता हुआ जहाँगीर महल पहुँच गया। टिकट एक ही था पूरे किले के लिए। किले के शेष भाग,जहाँ से अभी–अभी मैं घूमकर आ रहा था,एक अदद दर्शक के लिए तरस रहे थे जबकि जहाँगीर महल में भीड़ लगी थी। और भीड़ भी केवल देशी ही नहीं वरन विदेशियों की भी। विदेशी सैलानियों के युगल से लेकर काफी बड़े–बड़े समूह थे। लेकिन एक सिंगल गाइड उन्हें बेवकूफ बनाने के लिए पर्याप्त था। मैं तो समझ भी नहीं पा रहा था कि वे किस देश के हैं और गाइड उन्हें किस भाषा में बता रहा है। वस्तुतः दूसरे देश के स्थानों और भाषा वगैरह से अनजान किसी विदेशी के लिए गाइड,आवश्यक ही नहीं मजबूरी भी है।
जहाँगीर महल का निर्माण वीरसिंह देव बुन्देला ने 1605 से 1627 के मध्य जहाँगीर के सम्मान में कराया था। अत्यन्त सुन्दर एवं भव्य दिखने वाला यह महल पाँच मंजिला है। इसमें 136 कमरे हैं जिनमें कहीं कहीं चित्रकारी भी की गई है। महल के आँगन से महल के चारों तरफ की मंजिलों का दृश्य अत्यन्त आकर्षक दिखता है। आँगन में ही चारों तरफ बने कमरों के दरवाजे खुलते हैं। महल के बुर्जाें और दीवारों पर की गयी कारीगरी देखने लायक है और इसे बार–बार देखने और फोटाे खींचने पर भी मन नहीं भर रहा था। जहाँगीर महल की सारी मंजिलों पर भटक लेने के बाद मैं इसके पीछे की ओर निकला। इस तरफ एक विशाल दरवाजा बना हुआ है जिससे बाहर की ओर निकलने पर किले के पीछे की तरफ बने भवनों के खण्डहर दिखायी पड़ते हैं जिन्हें किले का चक्कर लगाते समय मैं पहले ही देख चुका था। बाद में ज्ञात हुआ कि जहाँगीर महल का यह पीछे की ओर वाला दरवाजा ही इसका मुख्य द्वार है।
जहाँगीर महल में अच्छा खासा समय गुजारने के बाद मैं बाहर निकला। 1 बज रहे थे। लेकिन ओरछा से अभी मन नहीं भरा था। चतुर्भज मन्दिर,रामराजा मन्दिर,हरदौल वाटिका,ओरछा किला और इसके अन्दर बने भवनों से जुड़ी कहानियां और इनके साथ ही कठोर पत्थरों से अठखेलियां करती बेतवा की लहरें मन में हलचल मचा रही थीं। क्योंकि ये कहानियां केवल कहानियां नहीं हैं वरन ओरछा का इतिहास हैं। मन इन्हें किंवदन्ती मानने काे तैयार नहीं था। ये तो इतिहास की तरह से सजीव है। ये बेतवा की तरह से जीवित हैं। इनमें आत्मा है। मैं काफी देर तक सोचता रहा ओरछा के बारे में। बचपन में दादी माँ के मुंह से सुनी बहुत सारी कहानियों में "एक राजा था ..............." वाली कहानी में शायद ओरछा के भी किसी राजा की कोई कहानी जरूर रही होगी। आज ओरछा की धरती से विदा लेते समय मन चंचल हो रहा था कि काशǃ कोई फिर से वो कहानियां सुनाता। यह जीवित किंवदन्तियों का शहर है।
किले से बाहर निकला तो एक बजे की धूप सीधे सिर पर पड़ रही थी लेकिन इसे नजरअन्दाज कर एक बार फिर से मैं बेतवा किनारे चल पड़ा। ओरछा छोड़ने के पहले,ओरछा की कहानियां सुनाने वाली माँ बेतवा की अनुमति जरूरी थी सो सब कुछ भूल मैं फिर से एक जादुई आकर्षण में बँधा हुआ बेतवा की ओर चल पड़ा। वापस लौटना मेरी मजबूरी थी इसलिए कुछ समय बिताने के बाद फिर से होटल लौटा जहाँ मेरा बैग मेरा इन्तजार कर रहा था। बैग लेकर चौराहे पर आया तो झाँसी के लिए तुरन्त आटो मिल गयी। इस समय 1.45 बज रहे थे। आधे घण्टे में मैं झाँसी बस स्टेशन पहुँच गया।
अगला भाग ः झाँसी–बुन्देले हरबोलों ने कही कहानी
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. चन्देरी की ओर
2. चन्देरी–इतिहास के झरोखे से
3. चन्देरी–इतिहास के झरोखे से (अगला भाग)
4. देवगढ़–स्वर्णयुग का अवशेष
5. ओरछा–जीवित किंवदन्ती
6. झाँसी–बुन्देलों ने कही कहानी
7. दतिया–गुमनाम इतिहास
आज मेरी इस यात्रा का पाँचवा दिन था। आज मुझे ओरछा का किला फतह करना था। सुबह 7 बजे ही मैं कमरे से निकल पड़ा। मालूम हुआ कि किला 9 बजे खुलता है इसलिए तब तक बेतवा के किनारे निकल पड़ा। टहलते हुए जब बेतवा पुल पर पहुँचा तो पूरब से आती सूरज की किरणें पश्चिम में स्थित,बेतवा के किनारे बनी छत्रियों पर पड़ कर उन्हें सुनहला बना रही थीं। कुछ देर तक मैं बेतवा की लहरों से निकलती कल–कल ध्वनि में ओरछा की इतिहास–गाथाएं सुनता रहा और उसके बाद सूरज के पीले रंग में दमकती पश्चिम में बनी छत्रियों की ओर निकल पड़ा। रास्ता पूछने की कोई खास जरूरत नहीं। सब कुछ दूर से ही दिखता है। उसे देखते हुए अपनी दिशा बनाये रखिये। सही जगह पर पहुँच जायेंगे।
यहाँ पहुँचने पर एक के बाद एक कई छत्रियां दिखाई पड़ने लगीं। पुरातत्व विभाग के एक बोर्ड पर लिखी सूचना से यह ज्ञात हुआ कि बेतवा के किनारे इस स्थान पर बुन्देला राजाओं तथा राजपरिवार के सदस्यों की 15 छत्रियां हैं। इनमें मधुकर शाह,वीरसिंह देव,जसवन्त सिंह,उद्धत सिंह,पहाड़ सिंह इत्यादि की छत्रियां शामिल हैं। अधिकांश छत्रियां तीन मंजिला हैं। छत्रियों के आस–पास घूमने के बाद मैं फिर से रामराजा मन्दिर के सामने स्थित मुख्य चौराहे पहुँच गया। चौराहे से कुछ ही दूरी पर हरदौल वाटिका है। रास्ता पूछते–पूछते मैं यहाँ भी पहुँच गया। हरदौल वाटिका सम्भवतः उस जमाने में राजघराने का घूमने–फिरने का स्थान था। यह आज के जमाने के पार्क जैसा है। मुख्य द्वार से अन्दर प्रवेश करने पर यहाँ पक्के तालाब जैसी संरचना दिखाई पड़ रही थी जिसमें वर्तमान में पानी नहीं था। हो सकता है उस समय यह स्विमिंग पूल की तरह से रहा हो। इस वाटिका को फूल बाग के नाम से भी जाना जाता है। हरदौल वाटिका के अन्दर एक दुमंजिला महल भी है। हरदौल वाटिका के पास ही पालकी महल है। पालकी महल के बगल में दो मीनारें या पिलर बने हुए हैं। इन्हें सावन–भादो नाम से जाना जाता है। इन्हें वायुयंत्र के रूप में बनाया गया था। इनके नीचे बने तहखाने में राजपरिवार गर्मी के मौसम में ठण्डी वायु का आनन्द लेता था। इन मीनारों के बारे में किंवदन्ती है कि वर्षा ऋतु में सावन खत्म होने और भादो शुरू होने के समय ये दाेनो मीनारें आपस में मिल जाती थीं।
इतना कुछ घूमने में नौ बज गये थे। अब मुझे लग रहा था कि भोजन और रूम से चेकआउट करके ही किले में प्रवेश करना ठीक रहेगा। सो यह दोनों काम करने के बाद 10 बजे मैं किले में पहुँचा।
किले के गेट से अन्दर जाकर मैंने ज्योंही टिकट लिया एक गाइड महोदय पीछे पड़ गये। मैंने कहा मैं अपने मन से ही घूम लूँगा। पुरातत्व विभाग ने काफी कुछ संकेतक लगा रखे हैं। गाइड महोदय का तर्क था कि आप सब कुछ नहीं जान पायेंगे। मेरा तर्क था कि सब कुछ तो कोई नहीं बता पायेगा। मैंने यह कहकर उनसे पीछा छुड़ाया कि आप बतायेंगे ज्यादा,घुमाएंगे कम और मुझे घूमना ज्यादा है। मेन गेट पर ही पूरे किला परिसर का एक नजरी नक्शा एक बोर्ड पर अंकित है। मैंने मोबाइल से उसकी फोटो ले ली। अब इसके बाद मुझे किसी गाइड की कोई जरूरत नहीं थी। नक्शे में बताये गये रास्ते के हिसाब से मैं चल पड़ा।
नक्शे के हिसाब से पहले व दूसरे स्थान पर क्रमशः कँटीला दरवाजा और टिकट काउण्टर के बाद तीसरा स्थान है राजा महल। नक्शे में चौदहवें स्थान पर जहाँगीर महल है। लेकिन अवस्थिति के हिसाब से राजा महल और जहाँगीर महल बहुत दूर नहीं हैं। किले में आने वाले पर्यटकाें और गाइडों के लिए यही दो भवन मुख्य लक्ष्य थे। इन दो के अलावा किसी तीसरी जगह पर इक्के–दुक्के लोग ही जा रहे थे। पूरा किला घूमना तो मेरे जैसे बेवकूफों के ही जिम्मे था। इसलिए मैं बिल्कुल नक्शे के हिसाब से चल रहा था। राजा महल में जब मैंने प्रवेश किया तो टिकट की जाँच हुई। मैं पहली ही नजर में फेल हो गया। कैमरे का टिकट लेना मैं भूल गया था। चेक करने वाले व्यक्ति ने मुझे परेशान होता देख सौजन्यतावश उसी टिकट पर हाथ से कुछ लिखकर कैमरे की फीस मुझसे वहीं जमा करा ली। मेरी परेशानी दूर हुई। अभी मैं राजा महल की कुछ फोटो खींच ही रहा था कि वही गाइड महोदय,जो मुझे गेट पर मिले थे,कुछ लोगों की भीड़ अपने पीछे लिए महल में दाखिल हो गये। मैं भी उस भीड़ के पीछे खड़ा हो गया और उनका भाषण सुनने लगा।
राजा महल के निर्माण का आरम्भ राजा रूद्रप्रताप (1501-1531) ने कराया। महल के मुख्य भाग का निर्माण उनके बड़े पुत्र राजा भारती चन्द्र (1531-1554) के शासन काल के दौरान हुआ। शेष भाग का निर्माण राजा मधुकर शाह (1554-1592) ने कराया। पाँच मंजिला यह महल आकार में वर्गाकार है तथा दो खण्डों में बना है। आवासीय कक्षों के अतिरिक्त दीवाने आम तथा दीवाने खास इसके प्रमुख दर्शनीय भाग हैं। इनमें जगह–जगह भित्ति चित्रों का अंकन किया गया है। एक स्थान पर छत में भी सुन्दर चित्रकारी की गयी है।
राजा महल देखने के बाद सारे लोग वापस मुड़कर जहाँगीर महल जा रहे थे। मैं पीछे न मुड़कर नक्शे के हिसाब से आगे बढ़ा तो लगा कि लोगों का वापस जाना आश्चर्यजनक नहीं है। आगे की ओर तमाम भवन हैं लेकिन अधिकांश खण्डहर में तब्दील हो चुके हैं। मैं इन खण्डहरों की फोटो खींचते चलता रहा। राजा महल के बाद क्रमशः शीश महल,रायमन दउवा की कोठी,इन्द्रजीत सिंह का अखाड़ा,तमीरात की कोठी और हमीर की कोठी तक गया। इन खण्डहरों में अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था। पेड़ों और झड़ियों से ढके इन सुनसान खण्डहरों में केवल चिड़ियों और कीट–पतंगों की आवाजें सुनाई दे रही थीं। एक बार तो भूत–प्रेत का भी खयाल आया। लेकिन तब तक किले की दीवार में एक दरवाजा दिखा। मैं उस की ओर बढ़ा तो बाहर बेतवा दिखाई पड़ी। मैं बाहर निकल गया। वहाँ भी नदी की एक सँकरी धारा और इधर–उधर बिखरे पड़े पत्थरों के अलावा कुछ नहीं था। लेकिन पत्थरों में भी सौन्दर्य कहाँ कम होता है। सुनसान स्थान पर थोड़ी देर पत्थरों पर उछलने कूदने के बाद में मैं फिर से किले के अन्दर आ गया। यहाँ से बारूद खाना,बकस राय की काेठी,पुरूषोत्तम दास का मकान,दरोगा की कोठी,ऊँटखाना,हमामखाना,शाही दरवाजा वगैरह के खण्डहरों को देखते और इनकी फोटो खींचते हुए राय प्रवीन महल पहुँच गया। शीश महल में मध्य प्रदेश पर्यटन द्वारा होटल का निर्माण किया गया है।
राय प्रवीन महल इस किले में जहाँगीर महल और राजा महल के बाद तीसरी महत्वपूर्ण इमारत है। यह एक छोटा सा महल है जिसे 1572 में इन्द्रजीत सिंह ने अपने महल की कवयित्री,गायिका व नर्तकी राय प्रवीण के लिए बनवाया था। इसके आस–पास और भी कुछ इमारतों के खण्डहर हैं। अब मेरे लिए जहाँगीर महल ही बच गया था। मैं तेज धूप से पसीने–पसीने हो रहा था। सिर की टोपी और पीठ पर रगड़ता बैग भी पसीने से भीग रहे थे। तो एक जगह एक पेड़ की छाया में बैठकर पीठ पर लदा बैग उतारा,पानी पिया और कुछ देर आराम किया।
पेड़ की छाया में कुछ देर आराम करने के बाद किले के शेष भाग का चक्कर लगाते हुए मैं पुनः मेन गेट के पास से गुजरता हुआ जहाँगीर महल पहुँच गया। टिकट एक ही था पूरे किले के लिए। किले के शेष भाग,जहाँ से अभी–अभी मैं घूमकर आ रहा था,एक अदद दर्शक के लिए तरस रहे थे जबकि जहाँगीर महल में भीड़ लगी थी। और भीड़ भी केवल देशी ही नहीं वरन विदेशियों की भी। विदेशी सैलानियों के युगल से लेकर काफी बड़े–बड़े समूह थे। लेकिन एक सिंगल गाइड उन्हें बेवकूफ बनाने के लिए पर्याप्त था। मैं तो समझ भी नहीं पा रहा था कि वे किस देश के हैं और गाइड उन्हें किस भाषा में बता रहा है। वस्तुतः दूसरे देश के स्थानों और भाषा वगैरह से अनजान किसी विदेशी के लिए गाइड,आवश्यक ही नहीं मजबूरी भी है।
जहाँगीर महल का निर्माण वीरसिंह देव बुन्देला ने 1605 से 1627 के मध्य जहाँगीर के सम्मान में कराया था। अत्यन्त सुन्दर एवं भव्य दिखने वाला यह महल पाँच मंजिला है। इसमें 136 कमरे हैं जिनमें कहीं कहीं चित्रकारी भी की गई है। महल के आँगन से महल के चारों तरफ की मंजिलों का दृश्य अत्यन्त आकर्षक दिखता है। आँगन में ही चारों तरफ बने कमरों के दरवाजे खुलते हैं। महल के बुर्जाें और दीवारों पर की गयी कारीगरी देखने लायक है और इसे बार–बार देखने और फोटाे खींचने पर भी मन नहीं भर रहा था। जहाँगीर महल की सारी मंजिलों पर भटक लेने के बाद मैं इसके पीछे की ओर निकला। इस तरफ एक विशाल दरवाजा बना हुआ है जिससे बाहर की ओर निकलने पर किले के पीछे की तरफ बने भवनों के खण्डहर दिखायी पड़ते हैं जिन्हें किले का चक्कर लगाते समय मैं पहले ही देख चुका था। बाद में ज्ञात हुआ कि जहाँगीर महल का यह पीछे की ओर वाला दरवाजा ही इसका मुख्य द्वार है।
जहाँगीर महल में अच्छा खासा समय गुजारने के बाद मैं बाहर निकला। 1 बज रहे थे। लेकिन ओरछा से अभी मन नहीं भरा था। चतुर्भज मन्दिर,रामराजा मन्दिर,हरदौल वाटिका,ओरछा किला और इसके अन्दर बने भवनों से जुड़ी कहानियां और इनके साथ ही कठोर पत्थरों से अठखेलियां करती बेतवा की लहरें मन में हलचल मचा रही थीं। क्योंकि ये कहानियां केवल कहानियां नहीं हैं वरन ओरछा का इतिहास हैं। मन इन्हें किंवदन्ती मानने काे तैयार नहीं था। ये तो इतिहास की तरह से सजीव है। ये बेतवा की तरह से जीवित हैं। इनमें आत्मा है। मैं काफी देर तक सोचता रहा ओरछा के बारे में। बचपन में दादी माँ के मुंह से सुनी बहुत सारी कहानियों में "एक राजा था ..............." वाली कहानी में शायद ओरछा के भी किसी राजा की कोई कहानी जरूर रही होगी। आज ओरछा की धरती से विदा लेते समय मन चंचल हो रहा था कि काशǃ कोई फिर से वो कहानियां सुनाता। यह जीवित किंवदन्तियों का शहर है।
किले से बाहर निकला तो एक बजे की धूप सीधे सिर पर पड़ रही थी लेकिन इसे नजरअन्दाज कर एक बार फिर से मैं बेतवा किनारे चल पड़ा। ओरछा छोड़ने के पहले,ओरछा की कहानियां सुनाने वाली माँ बेतवा की अनुमति जरूरी थी सो सब कुछ भूल मैं फिर से एक जादुई आकर्षण में बँधा हुआ बेतवा की ओर चल पड़ा। वापस लौटना मेरी मजबूरी थी इसलिए कुछ समय बिताने के बाद फिर से होटल लौटा जहाँ मेरा बैग मेरा इन्तजार कर रहा था। बैग लेकर चौराहे पर आया तो झाँसी के लिए तुरन्त आटो मिल गयी। इस समय 1.45 बज रहे थे। आधे घण्टे में मैं झाँसी बस स्टेशन पहुँच गया।
चतुर्भुज मन्दिर |
दशहरे के बाद माँ दुर्गा की मूर्ति को विसर्जन के लिए ले जाते हुए |
चाैराहे के पास से ओरछा किले में दिखता राजा महल |
राम राजा मन्दिर |
बेतवा पुल से ओरछा किले का दृश्य |
बेतवा नदी और उस पर बना बिना रेलिंग वाला सँकरा पुल |
बेतवा पुल से पश्चिम की ओर दिखती छत्रियाँ |
बेतवा के तट पर ओरछा की छत्रियाँ |
हरदौल वाटिका और सावन–भादो पिलर |
रामराजा मन्दिर के बाहर लगा फव्वारा |
रामराजा मन्दिर बिजली की सजावट के साथ |
ओरछा किले में राजा महल |
राजा महल के एक हाॅल में छत पर की गयी चित्रकारी |
राजा महल के अन्दर का भाग |
रायमन दउआ की कोठी |
जहाँगीर महल पूरब की ओर से |
दरोगा की कोठी |
पूरब की ओर बेतवा नदी की ओर से किले का दृश्य |
राय प्रवीन महल |
शाही दरवाजा |
जहाँगीर महल के अन्दर का भाग |
जहाँगीर महल की छत से बेतवा नदी और छत्रियों का विहंगम दृश्य |
जहाँगीर महल की छत से राजा महल का दृश्य |
शाम की लालिमा में बेतवा और ओरछा का किला |
बेतवा नदी पर बना बिना रेलिंग वाला सँकरा पुल |
जहाँगीर महल का पूर्वी दरवाजा |
ओरछा किले के अन्दर घूमने के लिए मार्गदर्शन |
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. चन्देरी की ओर
2. चन्देरी–इतिहास के झरोखे से
3. चन्देरी–इतिहास के झरोखे से (अगला भाग)
4. देवगढ़–स्वर्णयुग का अवशेष
5. ओरछा–जीवित किंवदन्ती
6. झाँसी–बुन्देलों ने कही कहानी
7. दतिया–गुमनाम इतिहास
ओरछा और मैं । सोशल मीडिया पर लगभग पूरक ही बन गए है । अफसोस ये रहा कि आप ओरछा आये और हमे खबर भी न की । खैर ओरछा की कहानी आप मेरे ब्लॉग पर भी विस्तार से पढ़ सकते है ।
ReplyDeletewww.bebkoof.blogspot.com
सही बात है भाई। आपका ब्लाग पहले भी देखा है लेकिन अब विस्तार से देखूँगा। थोड़ा समयाभाव रहता है। आपके लेखन का मुरीद हूँ। वैसे ओरछा यात्रा के दौरान आपसे फेसबुक मेसेन्जर पर थोड़ा सा सम्पर्क हुआ था। देवगढ़ जाने के लिए रास्ते की जानकारी आप ही से ली थी। लेकिन फिर समयाभाव के कारण आपसे सम्पर्क नहीं कर सका। सोशल मीडिया के जरिये ये जो सम्बन्ध बना है,मैं चाहूँगा कि यह आजीवन बना रहे और निरन्तर प्रगाढ़ होता रहे। धन्यवाद।
Deleteओरछा की यात्रा का शानदार विवरण,
ReplyDeleteकुछ साल पहले यहाँ की यात्रा की थी। सब वैसा ही है आज भी।
चलो झांसी चलते है। मैं भी सीधे वहीं गया था।
वाह भई। आप तो बिल्कुल मेरे साथ साथ चल रहे हैं। वास्तव में ओरछा आज भी पहले की ही तरह है। वैसे ओरछा से आगे भी साथ ही चलते रहिए।
Deleteसंदीप पवार जी से मेरी मुलाकात ओरछा यात्रा के दौरान ही हुई ।
Deleteमैं ही पीछे रह गया। लेकिन इतना तो तय कर रखा है कि किसी न किसी तरह से आपसे मिलूँगा जरूर।
Deleteओरछा की बेहतरीन घुमक्कड़ी...पिछले साल हमने भी की सब याद आ गया वापस...
ReplyDeleteधन्यवाद प्रतीक जी। आप आगे चलते रहिए। मैं आपको याद दिलाता चलूँगा।
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