माता ने बुलाया हैǃ
कहते हैं कि माता वैष्णो के यहाँ से बुलावा आता है,तभी आदमी वहाँ तक पहुँच पाता है। वैसे तो मन में आता है कि साल में कम से कम एक बार जरूर माता के दरबार में हाजिरी लगा लूँ लेकिन माता बुलाये तब तो। 2014 के जून महीने में माता के दरबार तक एक बार पहुँचा था लेकिन 2015 खाली–खाली ही बीत गया और माँ ने बुलावा नहीं भेजा। 2016 भी बीत गया और लगने लगा कि माँ कुछ नाराज है लेकिन 2017 में माँ ने बुलावा आखिर भेज ही दिया। समय का बहुत ही अभाव था लेकिन सितम्बर महीने के पहले सप्ताह में संयोग बन गया।
चल अकेलाǃ
कहते हैं कि माता वैष्णो के यहाँ से बुलावा आता है,तभी आदमी वहाँ तक पहुँच पाता है। वैसे तो मन में आता है कि साल में कम से कम एक बार जरूर माता के दरबार में हाजिरी लगा लूँ लेकिन माता बुलाये तब तो। 2014 के जून महीने में माता के दरबार तक एक बार पहुँचा था लेकिन 2015 खाली–खाली ही बीत गया और माँ ने बुलावा नहीं भेजा। 2016 भी बीत गया और लगने लगा कि माँ कुछ नाराज है लेकिन 2017 में माँ ने बुलावा आखिर भेज ही दिया। समय का बहुत ही अभाव था लेकिन सितम्बर महीने के पहले सप्ताह में संयोग बन गया।
चल अकेलाǃ
यात्रा वैसे तो मैं अकेले करना पसन्द करता हूँ। हर तरह की आजादी रहती है। जहाँ मन करे वहाँ घूमो। जहाँ मन करे वहाँ रूको। जो मन करे वो खाओ। लेकिन बेतकल्लुफ दोस्त साथ हों तो यात्रा का मजा कई गुना बढ़ जाता है। और दोस्त भी ऐसे जो हर साल वैष्णो माता का जयकारा लगाते हुए माँ के दरवाजे पर मत्था टेकते हैं।
इस बार इन दोस्तों की संख्या थी तेरह। लेकिन केवल संख्या से इनकी विशेषताओं का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। हाँ नाम से कुछ गुणों के बारे में जरूर पता लगाया जा सकता है। तो अब मैं बताने जा रहा हूँ कि इस बार की वैष्णो देवी यात्रा में कौन से दोस्त मेरे साथ थे– समास शैली में बात करने वाले 'व्यास' थे तो बिना ताप के ही अपना प्रताप फैलाने वाले 'राणा प्रताप',हमारी टीम का नेतृत्व करने वाले हंसों के हंस 'परमहंस' तो आत्माओं को सन्मार्ग पर ले जाने वाले 'परमात्मा',गुलाल सी रंगीनियत बिखेरने वाले 'अबीर' तो बिना किसी राजघराने के राजकुमार 'रावत जी',श्वेत वस्त्रधारी आधुनिक जमाने के हमारे 'नेताजी' तो सर्वगुणसम्पन्न लेकिन चेहरे पर भोलापन लिए 'भोला भाई'। और तो और हमारे 'हरिवंश चचा' भी थे जिन्हें 'बच्चन' की उपाधि मिलनी अभी शेष है। और जब ऐसे नामधारी मित्र साथ हों तो वेशभूषा भले ही फकीर की न हो,मैंने भी साथियों संग झोला उठा लिया।
इस बार इन दोस्तों की संख्या थी तेरह। लेकिन केवल संख्या से इनकी विशेषताओं का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। हाँ नाम से कुछ गुणों के बारे में जरूर पता लगाया जा सकता है। तो अब मैं बताने जा रहा हूँ कि इस बार की वैष्णो देवी यात्रा में कौन से दोस्त मेरे साथ थे– समास शैली में बात करने वाले 'व्यास' थे तो बिना ताप के ही अपना प्रताप फैलाने वाले 'राणा प्रताप',हमारी टीम का नेतृत्व करने वाले हंसों के हंस 'परमहंस' तो आत्माओं को सन्मार्ग पर ले जाने वाले 'परमात्मा',गुलाल सी रंगीनियत बिखेरने वाले 'अबीर' तो बिना किसी राजघराने के राजकुमार 'रावत जी',श्वेत वस्त्रधारी आधुनिक जमाने के हमारे 'नेताजी' तो सर्वगुणसम्पन्न लेकिन चेहरे पर भोलापन लिए 'भोला भाई'। और तो और हमारे 'हरिवंश चचा' भी थे जिन्हें 'बच्चन' की उपाधि मिलनी अभी शेष है। और जब ऐसे नामधारी मित्र साथ हों तो वेशभूषा भले ही फकीर की न हो,मैंने भी साथियों संग झोला उठा लिया।
हमारी इस महायात्रा का वाहक बनी बेगमपुरा एक्सप्रेस। और यह ट्रेन हमें ही नहीं वरन न जाने कितने ही हजारों भक्तों को निस्वार्थ भाव से,केवल किराया लेकर नित्यप्रति माँ के दर्शन कराती है। तो क्या इस ट्रेन में बैठने मात्र से ही माँ के दर्शनों का कुछ पुण्य नहीं मिलेगाǃ तो हम भी दोहरा लाभ उठाने की ख्वाहिश लिए,यानी ट्रेन में बैठने और माता के दर्शन करने के लिए चल पड़े।
नाथों के नाथ विश्वनाथ की नगरी काशीǃ
जम्मू जाने वाली बेगमपुरा एक्सप्रेस का समय दिन के 12 बजकर 50 मिनट।
अतः सुबह से ही देश–देश के भूपति,रथी–महारथी अन्यान्य स्थानों से नगर में प्रवेश करने लगे। जैसे कि शिव के विवाह में शामिल होने के लिए देवता एकत्रित हुए थे। कुछ देवताओं को देवरिया से वाराणसी आना था। इसलिए गोरखपुर से सुबह के समय चलने वाली काशी एक्सप्रेस से वाराणसी आने की योजना थी। लेकिन अपने मन से बनाए गये प्लान की ऐसी–तैसी। ट्रेन हिन्दुस्तान की। रात में पता लगा कि यह ट्रेन बारह घण्टे लेट है। खलबली मच गयी। शायद बजरंग बली के लंका दहन के समय भी ऐसी खलबली न मची हो। मां के दर्शन का प्लान फेल होता दिख रहा था। इसलिए रात में चलने वाली पैसेन्जर ट्रेन पकड़कर या फिर यूँ कहें कि ट्रेन में चढ़कर सभी महारथी कन्धे पर झोला और सिर पर पैर रखकर भागे। कोई आधा पेट खाकर घर से भागा कोई खाली पेट। किसी की दावत कैंसिल हुई तो किसी की नींद। लक्ष्य बस एक था– किसी तरह वाराणसी पहुँचना। और जब सारे के सारे वीर एक साथ रात की सवारी गाड़ी से चलकर सुबह के समय वाराणसी सिटी स्टेशन पर एकत्र हुए तो कोलाहल मचना स्वाभाविक था। शायद ऐसा ही कोलाहल सीता स्वयंवर के समय हुआ था जब अनेकों भूपति एक साथ मंच पर चढ़ गये थे। इसी कोलाहल के बीच मैं भी अपने मित्र राणा प्रताप के साथ वाराणसी 'सिटी' स्टेशन पर 'इन्टरसिटी' नामक यान से अवतरित हुआ। अन्य यात्रियों से भेंट–मुलाकात हुई।
संघे शक्ति कलियुगेǃ
यही सोचकर पूरी टीम का संगठन किया गया। वजह आटो वालों से लड़ाई लेनी थी। वाराणसी सिटी से वाराणसी कैण्ट तक का किराया जो तय करना था। किराया अगर 20 होता तो हमें 15 में ही तय करना था और अगर 15 होता तो हमें 12 में ही तय करना था,सो किया गया। सभी दर्शनार्थी थे,पर्यटक तो कोई था नहीं,तो भीषण मोलभाव अवश्यम्भावी था। वाराणसी कैण्ट पहुँचे तो अभी साढ़े दस ही बज रहे थे। समय बिताना था। उसके पहले भोजन करना था। भोजन करने के भी कई तरीके थे। किसी के पास रात का बना 'ताजा' खाना था तो उसे ढाबे या रेस्टोरेण्ट के दिन में बने 'बासी' भोजन से अरूचि हो रही थी। मैं इस ऊहापोह में था कि घर से खाना बनवाकर ले चलूँ तो बड़े समूह में अकेले खाऊँगा कैसेǃ फिर भी अपनी राम पोटरिया में कुछ तो था ही। इसके बावजूद रेलवे की तत्काल बुकिंग की भाँति होटल का सहारा लिया गया। वैसे इस मर्ज से ग्रस्त मैं अकेला नहीं था। कुछ और भी थे। तो फिर किसी रेस्टोरेण्ट की शरण लेनी ही थी। खाना खाने के बाद समय बिताने के लिए रेलवे के ओवरब्रिज से अच्छा कौन सा स्थान हाे सकता हैǃ तो फिर ओवरब्रिज की शरण ली गयी। सितम्बर के महीने में ओरवब्रिज की ऊॅंचाई पर लगने वाली ठण्डी–ठण्डी बरसाती हवा के आनन्द के बारे में वही बता सकता है जिसने इसका आनन्द लिया हो।
भगदड़ उर्फ भागदौड़ǃ
बारह बजे के आस–पास ट्रेन आयी तो भागदौड़ मच गयी। लेट में रिजर्वेशन कराने की सजा रेलवे ने हमें कुछ इस तरह दी कि तेरह लोगों को तीन बोगियों में कर दिया था। वो तेरह और तीन का रिश्ता यूँ ही काफी पुराना है। ट्रेन समय से चली लेकिन कुछ यूँ झटका दिया कि सारे यात्री हिल गये। हमें लगा कि ड्राइवर नौसिखिया है। लेकिन जब ट्रेन आगे बढ़ी तो झटके भी बढ़ते गये। शायद ये ट्रेन के झटके नहीं लटके थे। पता नहीं ड्राइवर की गलती थी या फिर इंजन में ही खराबी थी। कुछ समय बाद तो हमें ट्रेन में खड़ा होने में भी डर लगने लगा। क्या जाने कब झटका लगे और हम औंधे मुँह ट्रेन के फर्श पर धूल चाटने लगें। ट्रेन के ये झटके जम्मू तक लगते रहे और हमारी टीम के सदस्य अबीर भाई,जो कि रेलवे के कर्मचारी हैं,ट्रेन के इन झटकों का विश्लेषण भिन्न–भिन्न तरीकों से करते रहे।
अगले दिन 12 बजे ट्रेन जम्मू पहुँची। अगला कार्यक्रम कटरा के लिए बस पकड़ने का था। कई बसें लगीं थीं लेकिन हमारी संख्या के बराबर किसी में सीट खाली नहीं थी। किसी ने सलाह दी कि ए.सी. बस से चला जाय। तो ए.सी. बस ही पकड़ी गयी। कटरा पहुँचकर हमारे समूह का पहला काम होता है यात्रा पर्ची काउण्टर से पर्ची लेना। पर्ची लेकर बाहर निकले तो वहाँ मौजूद कम भीड़ को देखकर और होटल वालों की बातों से समझ आ गया कि इनका धन्धा इस समय कुछ मन्दा चल रहा है। हमारे लिए यह अच्छा ही था क्योंकि आसानी से कमरे मिल जायेंगे। वैसे हमारे इस कुनबे की धर्मशाला पहले से लगभग तय थी। तेरह थे तो तेरह जगह पूछताछ करते हुए अपनी उसी पुरानी जगह पर पहुँच गये जहाँ पहले भी कई बार ठहर चुके हैं। अब काउण्टर पर अकेला एक आदमी बैठा हो और सामने तेरह हों तो अगला कितनी देर टिकेगा। हार मानकर साढ़े तीन सौ के रेट पर कमरे दे दिये।
शाम के चार बज गये थे। कुछ खाने–पीने और गप्पे हाँकने के बाद समय आराम करने का था। माता के दरबार में कब चला जाय,इस पर भी बहस हुई। तय हुआ कि रात के दो बजे निकला जायेगा। इससे बढ़िया कोई समय हो ही नहीं सकता। मुझे समय कुछ जँच तो नहीं रहा था लेकिन सहमति बन गयी। बड़ी मेहनत से नींद खुली और नींद खुल गयी तो चल दिये। नहाने–धोने की कोई आवश्यकता थी नहीं। और जब हमारी टीम कटरा की सड़क पर दो बजे रात को निकली तो सिर्फ हम ही हम थे और हमारे अलावा काेई था तो सड़कों पर रात्रि में स्वतंत्र विचरने वाले कुछ जानवर। बाणगंगा चेक–पोस्ट पर काफी लोग सोये हुए थे। उन्हें सोता छोड़ हम आगे बढ़ गये। उस समय ऊपर चढ़ाई करने वाले इक्का–दुक्का लोग ही दिखाई पड़ रहे थे। और हमारी समझ से यह काफी अच्छा था। भीड़ तो बिल्कुल नहीं थी। थोड़ी–थोड़ी दूरी पर रूकते–ठहरते हम लगभग छः घण्टे की पैदल यात्रा के बाद वैष्णो माता के मुख्य मन्दिर के पास पहुँच गये। पहले की तुलना में यहाँ की व्यवस्था काफी परिवर्तित हो गयी है। नये बाथरूम बन गये हैं। प्रसाद लेने और ग्रुप नंबर प्राप्त करने के बाद हम लाइन में लग गये। चप्पलों को एक स्टैण्ड में रखकर उनके भाग्य पर छोड़ दिया गया। सुबह की आरती समाप्त होने वाली थी और दर्शन कुछ देर के लिए बन्द थे। भीड़ बहुत अधिक नहीं थी फिर भी लगभग दाे घण्टे लग गये। बाहर निकले तो भैरो बाबा के यहाँ जाने के लिए टीम में आम सहमति का अभाव था तो यह कैंसिल कर दिया गया। वापसी हो गयी। उसके पहले वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड द्वारा संचालित रेस्टोरेण्ट में भोजन किया गया। नीचे उतरने में शाम हो गयी।
अब थोड़ा माँ वैष्णो के बारे मेंǃ
माता वैष्णो का भवन त्रिकूट पर्वत पर स्थित है जो 5200 फीट की ऊॅंचाई पर है। कटरा से इस स्थान की दूरी 13 किलोमीटर है। कटरा समुद्र तल से 2500 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। माँ के दर्शन के लिए पूरे भारत से वर्ष में लाखों दर्शनार्थी यहाँ पहुँचते हैं और इस वजह से यह आन्ध्र प्रदेश के तिरूमला स्थित वेंकटेश्वर मन्दिर के बाद दूसरा सबसे अधिक दर्शन किया जाने वाला मन्दिर है। वैसे तो माँ अपने दरबार में सबका ध्यान रखती है लेकिन यात्रियों की बढ़ती भीड़ को देखते हुए 1986 में यहाँ वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड बनाया गया जो यहाँ की समस्त व्यवस्था का संचालन करता है। वर्तमान में नीचे से लेकर वैष्णो देवी के भवन तक यात्रियों के लिए सुमधुर संगीत सुनाने की व्यवस्था भी कर दी गयी है। जगह–जगह स्पीकर लगा दिये गये हैं जिन पर हमेशा भक्ति संगीत गूँजता रहता है।
अब जरा वैष्णो देवी से सम्बन्धित मुख्य मान्यता के बारे में। कहते हैं कि वर्तमान कटरा से 2 किमी दूर स्थित एक गाँव में रहने वाले एक निर्धन ब्राह्मण तथा माता वैष्णो के परम भक्त श्रीधर नामक एक व्यक्ति ने एक बार अपने गाँव में माता के भण्डारे का आयोजन किया जिसमें साधु–संतों काे निमंत्रित किया। इस भण्डारे में भैरोनाथ तथा उसके शिष्यों को भी निमंत्रण दिया गया। भैराेनाथ तथा उसके शिष्यों ने भण्डारे में मांसाहार खाने का हठ किया। श्रीधर ने जब उन्हें मना किया तो भैराेनाथ क्रोधित हाे उठा। तब अपने भक्त श्रीधर की रक्षा के लिए माता स्वयं एक बालिका का रूप धरकर भण्डारे में आयीं और भैरो से लड़ते हुए त्रिकूट पर्वत पर चढ़ गयीं। उस समय बालिका रूपी वैष्णो देवी की रक्षा के लिए हनुमान जी भी साथ थे। भैरो से लड़ने के लिए माता ने एक गुफा में नौ महीने तक तपस्या की और इस समय तक हनुमान जी ने भैरो को व्यस्त रखा। इस गुफा को ही वर्तमान में अर्द्धकुमारी के नाम से जाना जाता है। हनुमान जी को एक बार प्यास लगने पर माता ने पहाड़ पर धनुष पर बाण चलाया जिससे एक जलधारा प्रकट हो गई। इस जलधारा को बाणगंगा के नाम से जाना जाता है।
त्रिकूट पर्वत पर जिस स्थान पर माता ने भैराेनाथ का वध किया उसे वर्तमान में 'भवन' के नाम से जाना जाता है। इस स्थान पर माता वैष्णो तीन पिंडियों के रूप में विद्यमान हैं। इनमें बाएं से क्रमशः माँ सरस्वती,माँ लक्ष्मी तथा माँ काली का स्वरूप माना जाता है। भैराेनाथ का वध करने पर उसका सिर उस स्थान से काफी दूर जाकर भैरो घाटी में गिरा। वहाँ पर भैरोनाथ का मंदिर बना है।
वर्तमान में माता वैष्णो देवी के भवन से भैरोनाथ के मंदिर की दूरी लगभग 3 किमी है तथा इसका रास्ता काफी खड़ी चढ़ाई वाला है। युद्ध में हारने पर भैराेनाथ ने जब माता से क्षमा माँगी तो माता ने उसे वरदान दिया कि जो भी वैष्णो माता के दर्शन करने आयेगा,भैरोनाथ के दर्शन किये बिना उसकी यात्रा पूरी नहीं होगी। मैं भी वैष्णो माता के दर्शन के बाद भैरोनाथ के दर्शन करना चाह रहा था लेकिन मेरे अधिकांश साथी नीचे उतरने के पक्ष में थे इसलिए मुझे भी नीचे उतरना पड़ा।
बहुमत का फैसला अमान्यǃ
कटरा में अभी हमारे पास एक दिन यानी कल का दिन और शेष था। जाहिर तौर पर यह दिन शिव खोड़ी की यात्रा के लिए सर्वाधिक उपयुक्त था। प्रस्ताव रखा गया लेकिन पास नहीं हो सका। टीम दो भागों में बँट गयी थी। एक तरफ सात,दूसरी तरफ छः। आराम बहुमत में,शिव खोड़ी अल्पमत में। लेकिन बहुमत का फैसला यदि ठीक न हो तो अमान्य है। यही मानकर हम छः ने अगले दिन शिव खोड़ी जाने के लिए एक गाड़ी बुक कर ली।
अगले दिन दस बजे तक हम छः शिव खोड़ी के लिए प्रस्थान कर गये। सोने वाले सोते रह गये। गाड़ी चली तो ड्राइवर ने अपनी लकीर पकड़ी। यहाँ ये मन्दिर,वहाँ वो मन्दिर। हमने कहा कि भाई ये सारे मन्दिर पहले देखे हुए हैं। इस बार तो अपना एकसूत्रीय कार्यक्रम है– शिवखोड़ी। ड्राइवर ने सलाह मान ली। तो अब रास्ते में नाश्ता करने के अलावा और कोई काम नहीं रह गया। दो–ढाई घण्टे में रनसू पहुँच गये। यहाँ बहुमत घोड़े के पक्ष में था। ग्यारह नम्बर की जोड़ी हार गयी। घोड़े किराये पर लिये गये और शिव खोड़ी की यात्रा आरम्भ हो गयी। बहुत अधिक भीड़–भाड़ नहीं थी तो पैदल और घोड़ों के बीच धक्कामुक्की भी नहीं थी। आराम से एक घण्टे में ऊपर पहुँच गये। ऊँट की पूँछ के बराबर छोटी सी लाइन लगी थी। हमने भी जल्दी से अपनी चरणपादुकाएं और मोबाइल वगैरह जमा किये और लाइन में लग गये। पहले की तुलना में यहाँ भी सुविधाएं काफी बढ़ गयीं हैं। श्राइन बोर्ड बन गया है। कुछ नये निर्माण हो गये हैं। कर्मचारियों की नियुक्ति हो गयी है। अन्यथा 2014 में अपना कैमरा सुरक्षित रखने के लिए हमें अपनी टीम में से ही एक आदमी को बाहर छोड़ना पड़ा था। सँकरी गुफा से होते हुए महादेव के दर्शन करने में भी हमें लगभग एक घण्टे लग गये। गुफा के दूसरे द्वार पर स्थापित शिवलिंग के पास प्रवचन करते पुजारी को सुनने के लिए भीड़ लगी थी। शिव के दर्शन करने के लिए गुफा के फिसलन भरे फर्श पर लोग एक दूसरे को धकिया रहे थे। हम लोगों ने दूर से ही दो–चार मिनट तक प्रवचन सुना और धीरे से बाहर निकल गये।
शिवखोड़ी जम्मू परिक्षेत्र के रियासी जिले में स्थित है। कटरा से शिवखोड़ी की दूरी 85 किमी है। कटरा और शिवखोड़ी के बीच में पर्याप्त साधन उपलब्ध हैं। शिवखोड़ी ट्रेक पर ऊपर जाने के लिए रनसू आधार स्थल है। रनसू से शिवखोड़ी 3.5 किमी है। रनसू से शिवखोड़ी तक का मार्ग काफी हरा–भरा और सुन्दर है। मार्ग के साथ साथ श्वेत जल वाली एक धारा प्रवाहित होती है जिसे दूधगंगा कहा जाता है। स्थानीय भाषा में खोड़ी का मतलब गुफा होता है। अतः शिवखोड़ी का अर्थ है– शिव की गुफा। गुफा में प्रवेश करने के लिए कुछ सीढ़ियां भी चढ़नी पड़ती हैं। गुफा का प्रवेश द्वार काफी बड़ा है जिसमें लाइन लगाकर काफी संख्या में लाेग अन्दर प्रवेश करने के लिए खड़े रहते हैं। गुफा के इस भाग में पत्थरों की दरारों में जमे कबूतर और चमगादड़ भी यहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं। सँकरी गुफा के दूसरे छोर पर,जहाँ प्रवेश द्वार की भाँति ही खुला स्थान है,4 फीट ऊँचा शिवलिंग है। पूरी गुफा में ऊपर से रिसते पानी के कारण फिसलन बनी रहती है।
गुफा से सम्बन्धित भस्मासुर की कथा काफी रोचक है। भस्मासुर नामक असुर ने भगवान शिव की घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर शिव जी उसे यह वरदान दे दिया कि वह जिसके सिर पर हाथ रख देगा वह जलकर भस्म हो जायेगा। वरदान की शक्ति पाकर भस्मासुर अत्याचारी हो गया और देवताओं पर अत्याचार करने लगा। उसके अत्याचारों से मुक्ति पाने हेतु देवर्षि नारद ने उसके अंत का एक उपाय ढूँढ़ा और उसे पार्वती का अपहरण करने के लिए उकसाया। लालच में आकर भस्मासुर पार्वती को पाने के लिए दौड़ा। ऐसी विकट परिस्थिति देखकर शिव जी पार्वती के साथ शिवखोड़ी की तरफ भागे। रनसू नामक स्थान पर शिव और भस्मासुर का युद्ध होने लगा। अपने ही दिये गये वरदान के कारण शिव जी भस्मासुर को मार नहीं सकते थे अतः यहाँ उन्होंने अपने त्रिशूल से शिवखोड़ी का निर्माण किया और माता पार्वती के साथ गुफा में प्रवेश कर गये। यहाँ पर वे योग साधना में लीन हो गये। इधर भगवान शिव की प्रेरणा से भगवान विष्णु ने पार्वती का रूप धारण कर भस्मासुर को सम्मोहित कर लिया और उसके साथ नृत्य करने लगे। इस क्रिया में भस्मासुर ने भूल से अपने ही सिर पर हाथ रख दिया और शिव के वरदान की वजह से जलकर भस्म हो गया।
गुफा से बाहर निकल कर घोड़ेवालों को खोजा गया लेकिन वे तो हमें ही खोज रहे थे। मेरा घोड़ावाला थोड़ा अलग था। उसका किसी दूसरे घोड़ेवाले से झगड़ा हो गया था। मारपीट हो गयी थी और नाैबत पुलिस तक आ पहुँची थी। बिचारा कागज का एक पन्ना लेकर तहरीर लिखाने के लिए दौड़ रहा था। खैर,जल्दी ही इस समस्या से निजात मिली। उसकी तहरीर दे दी गयी और मैं भी जल्दी ही नीचे उतरने लगा।
शाम होने के पहले ही हम कटरा पहुँच चुके थे। भोजन की व्यवस्था रोज के लिए एक होटल वाले से थोक के भाव में कर ली गयी थी सो कोई समस्या नहीं थी। लेकिन असली समस्या तो अब आनी थी जब पता लगा कि भोर में चलने वाली वह ट्रेन,जिससे हमें वापसी करनी थी,कैंसिल हो गयी। बुरे फँसे। अब इस समय तो कुछ किया भी नहीं जा सकता था। अगले दिन अब तत्काल आरक्षण का ही सहारा था। सुबह हुई तो एक एजेण्ट से बात की गयी। अब ऐसी परिस्थिति में उसका रेट क्या हो सकता था,इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। हमारे कुनबे में बिखराव भी शुरू हो चुका था। जिसका सींग जिधर समाया उधर से ही वह निकलने की कोशिश में लग गया। हमें भी अगले दिन के लिए रिजर्वेशन तो मिला लेकिन हमारी इच्छित ट्रेन वाराणसी जाने वाली बेगमपुरा एक्सप्रेस,जो जम्मू से दिन के 2 बजे रवाना होती है,में न मिलकर हावड़ा जाने वाली हिमगिरि एक्सप्रेस में मिला जो रात के पौने ग्यारह बजे जम्मू से चलने वाली थी।
समथिंग इस बेटर दैन नथिंग।
एक दिन बेकार बिताने के बाद हम ससमय जम्मू रेलवे स्टेशन पहुँच गये। लेकिन हायǃ जिस ट्रेन को रात के पौने ग्यारह बजे जम्मू से रवाना होना चाहिए था वह ट्रेन आयी ही अगले दिन सुबह सात बजे। अब रात प्लेटफार्म पर ही गुजरनी थी। गाड़ी अगले दिन सुबह आयी। थके–हारे यात्री ट्रेन में सवार हुए और दो दिन लेट से वाराणसी स्टेशन पहुँचे। वाराणसी से पुनः पैसेन्जर ट्रेन के सहारे घर पहुँचे।
नाथों के नाथ विश्वनाथ की नगरी काशीǃ
जम्मू जाने वाली बेगमपुरा एक्सप्रेस का समय दिन के 12 बजकर 50 मिनट।
अतः सुबह से ही देश–देश के भूपति,रथी–महारथी अन्यान्य स्थानों से नगर में प्रवेश करने लगे। जैसे कि शिव के विवाह में शामिल होने के लिए देवता एकत्रित हुए थे। कुछ देवताओं को देवरिया से वाराणसी आना था। इसलिए गोरखपुर से सुबह के समय चलने वाली काशी एक्सप्रेस से वाराणसी आने की योजना थी। लेकिन अपने मन से बनाए गये प्लान की ऐसी–तैसी। ट्रेन हिन्दुस्तान की। रात में पता लगा कि यह ट्रेन बारह घण्टे लेट है। खलबली मच गयी। शायद बजरंग बली के लंका दहन के समय भी ऐसी खलबली न मची हो। मां के दर्शन का प्लान फेल होता दिख रहा था। इसलिए रात में चलने वाली पैसेन्जर ट्रेन पकड़कर या फिर यूँ कहें कि ट्रेन में चढ़कर सभी महारथी कन्धे पर झोला और सिर पर पैर रखकर भागे। कोई आधा पेट खाकर घर से भागा कोई खाली पेट। किसी की दावत कैंसिल हुई तो किसी की नींद। लक्ष्य बस एक था– किसी तरह वाराणसी पहुँचना। और जब सारे के सारे वीर एक साथ रात की सवारी गाड़ी से चलकर सुबह के समय वाराणसी सिटी स्टेशन पर एकत्र हुए तो कोलाहल मचना स्वाभाविक था। शायद ऐसा ही कोलाहल सीता स्वयंवर के समय हुआ था जब अनेकों भूपति एक साथ मंच पर चढ़ गये थे। इसी कोलाहल के बीच मैं भी अपने मित्र राणा प्रताप के साथ वाराणसी 'सिटी' स्टेशन पर 'इन्टरसिटी' नामक यान से अवतरित हुआ। अन्य यात्रियों से भेंट–मुलाकात हुई।
संघे शक्ति कलियुगेǃ
यही सोचकर पूरी टीम का संगठन किया गया। वजह आटो वालों से लड़ाई लेनी थी। वाराणसी सिटी से वाराणसी कैण्ट तक का किराया जो तय करना था। किराया अगर 20 होता तो हमें 15 में ही तय करना था और अगर 15 होता तो हमें 12 में ही तय करना था,सो किया गया। सभी दर्शनार्थी थे,पर्यटक तो कोई था नहीं,तो भीषण मोलभाव अवश्यम्भावी था। वाराणसी कैण्ट पहुँचे तो अभी साढ़े दस ही बज रहे थे। समय बिताना था। उसके पहले भोजन करना था। भोजन करने के भी कई तरीके थे। किसी के पास रात का बना 'ताजा' खाना था तो उसे ढाबे या रेस्टोरेण्ट के दिन में बने 'बासी' भोजन से अरूचि हो रही थी। मैं इस ऊहापोह में था कि घर से खाना बनवाकर ले चलूँ तो बड़े समूह में अकेले खाऊँगा कैसेǃ फिर भी अपनी राम पोटरिया में कुछ तो था ही। इसके बावजूद रेलवे की तत्काल बुकिंग की भाँति होटल का सहारा लिया गया। वैसे इस मर्ज से ग्रस्त मैं अकेला नहीं था। कुछ और भी थे। तो फिर किसी रेस्टोरेण्ट की शरण लेनी ही थी। खाना खाने के बाद समय बिताने के लिए रेलवे के ओवरब्रिज से अच्छा कौन सा स्थान हाे सकता हैǃ तो फिर ओवरब्रिज की शरण ली गयी। सितम्बर के महीने में ओरवब्रिज की ऊॅंचाई पर लगने वाली ठण्डी–ठण्डी बरसाती हवा के आनन्द के बारे में वही बता सकता है जिसने इसका आनन्द लिया हो।
भगदड़ उर्फ भागदौड़ǃ
बारह बजे के आस–पास ट्रेन आयी तो भागदौड़ मच गयी। लेट में रिजर्वेशन कराने की सजा रेलवे ने हमें कुछ इस तरह दी कि तेरह लोगों को तीन बोगियों में कर दिया था। वो तेरह और तीन का रिश्ता यूँ ही काफी पुराना है। ट्रेन समय से चली लेकिन कुछ यूँ झटका दिया कि सारे यात्री हिल गये। हमें लगा कि ड्राइवर नौसिखिया है। लेकिन जब ट्रेन आगे बढ़ी तो झटके भी बढ़ते गये। शायद ये ट्रेन के झटके नहीं लटके थे। पता नहीं ड्राइवर की गलती थी या फिर इंजन में ही खराबी थी। कुछ समय बाद तो हमें ट्रेन में खड़ा होने में भी डर लगने लगा। क्या जाने कब झटका लगे और हम औंधे मुँह ट्रेन के फर्श पर धूल चाटने लगें। ट्रेन के ये झटके जम्मू तक लगते रहे और हमारी टीम के सदस्य अबीर भाई,जो कि रेलवे के कर्मचारी हैं,ट्रेन के इन झटकों का विश्लेषण भिन्न–भिन्न तरीकों से करते रहे।
अगले दिन 12 बजे ट्रेन जम्मू पहुँची। अगला कार्यक्रम कटरा के लिए बस पकड़ने का था। कई बसें लगीं थीं लेकिन हमारी संख्या के बराबर किसी में सीट खाली नहीं थी। किसी ने सलाह दी कि ए.सी. बस से चला जाय। तो ए.सी. बस ही पकड़ी गयी। कटरा पहुँचकर हमारे समूह का पहला काम होता है यात्रा पर्ची काउण्टर से पर्ची लेना। पर्ची लेकर बाहर निकले तो वहाँ मौजूद कम भीड़ को देखकर और होटल वालों की बातों से समझ आ गया कि इनका धन्धा इस समय कुछ मन्दा चल रहा है। हमारे लिए यह अच्छा ही था क्योंकि आसानी से कमरे मिल जायेंगे। वैसे हमारे इस कुनबे की धर्मशाला पहले से लगभग तय थी। तेरह थे तो तेरह जगह पूछताछ करते हुए अपनी उसी पुरानी जगह पर पहुँच गये जहाँ पहले भी कई बार ठहर चुके हैं। अब काउण्टर पर अकेला एक आदमी बैठा हो और सामने तेरह हों तो अगला कितनी देर टिकेगा। हार मानकर साढ़े तीन सौ के रेट पर कमरे दे दिये।
शाम के चार बज गये थे। कुछ खाने–पीने और गप्पे हाँकने के बाद समय आराम करने का था। माता के दरबार में कब चला जाय,इस पर भी बहस हुई। तय हुआ कि रात के दो बजे निकला जायेगा। इससे बढ़िया कोई समय हो ही नहीं सकता। मुझे समय कुछ जँच तो नहीं रहा था लेकिन सहमति बन गयी। बड़ी मेहनत से नींद खुली और नींद खुल गयी तो चल दिये। नहाने–धोने की कोई आवश्यकता थी नहीं। और जब हमारी टीम कटरा की सड़क पर दो बजे रात को निकली तो सिर्फ हम ही हम थे और हमारे अलावा काेई था तो सड़कों पर रात्रि में स्वतंत्र विचरने वाले कुछ जानवर। बाणगंगा चेक–पोस्ट पर काफी लोग सोये हुए थे। उन्हें सोता छोड़ हम आगे बढ़ गये। उस समय ऊपर चढ़ाई करने वाले इक्का–दुक्का लोग ही दिखाई पड़ रहे थे। और हमारी समझ से यह काफी अच्छा था। भीड़ तो बिल्कुल नहीं थी। थोड़ी–थोड़ी दूरी पर रूकते–ठहरते हम लगभग छः घण्टे की पैदल यात्रा के बाद वैष्णो माता के मुख्य मन्दिर के पास पहुँच गये। पहले की तुलना में यहाँ की व्यवस्था काफी परिवर्तित हो गयी है। नये बाथरूम बन गये हैं। प्रसाद लेने और ग्रुप नंबर प्राप्त करने के बाद हम लाइन में लग गये। चप्पलों को एक स्टैण्ड में रखकर उनके भाग्य पर छोड़ दिया गया। सुबह की आरती समाप्त होने वाली थी और दर्शन कुछ देर के लिए बन्द थे। भीड़ बहुत अधिक नहीं थी फिर भी लगभग दाे घण्टे लग गये। बाहर निकले तो भैरो बाबा के यहाँ जाने के लिए टीम में आम सहमति का अभाव था तो यह कैंसिल कर दिया गया। वापसी हो गयी। उसके पहले वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड द्वारा संचालित रेस्टोरेण्ट में भोजन किया गया। नीचे उतरने में शाम हो गयी।
अब थोड़ा माँ वैष्णो के बारे मेंǃ
माता वैष्णो का भवन त्रिकूट पर्वत पर स्थित है जो 5200 फीट की ऊॅंचाई पर है। कटरा से इस स्थान की दूरी 13 किलोमीटर है। कटरा समुद्र तल से 2500 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। माँ के दर्शन के लिए पूरे भारत से वर्ष में लाखों दर्शनार्थी यहाँ पहुँचते हैं और इस वजह से यह आन्ध्र प्रदेश के तिरूमला स्थित वेंकटेश्वर मन्दिर के बाद दूसरा सबसे अधिक दर्शन किया जाने वाला मन्दिर है। वैसे तो माँ अपने दरबार में सबका ध्यान रखती है लेकिन यात्रियों की बढ़ती भीड़ को देखते हुए 1986 में यहाँ वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड बनाया गया जो यहाँ की समस्त व्यवस्था का संचालन करता है। वर्तमान में नीचे से लेकर वैष्णो देवी के भवन तक यात्रियों के लिए सुमधुर संगीत सुनाने की व्यवस्था भी कर दी गयी है। जगह–जगह स्पीकर लगा दिये गये हैं जिन पर हमेशा भक्ति संगीत गूँजता रहता है।
अब जरा वैष्णो देवी से सम्बन्धित मुख्य मान्यता के बारे में। कहते हैं कि वर्तमान कटरा से 2 किमी दूर स्थित एक गाँव में रहने वाले एक निर्धन ब्राह्मण तथा माता वैष्णो के परम भक्त श्रीधर नामक एक व्यक्ति ने एक बार अपने गाँव में माता के भण्डारे का आयोजन किया जिसमें साधु–संतों काे निमंत्रित किया। इस भण्डारे में भैरोनाथ तथा उसके शिष्यों को भी निमंत्रण दिया गया। भैराेनाथ तथा उसके शिष्यों ने भण्डारे में मांसाहार खाने का हठ किया। श्रीधर ने जब उन्हें मना किया तो भैराेनाथ क्रोधित हाे उठा। तब अपने भक्त श्रीधर की रक्षा के लिए माता स्वयं एक बालिका का रूप धरकर भण्डारे में आयीं और भैरो से लड़ते हुए त्रिकूट पर्वत पर चढ़ गयीं। उस समय बालिका रूपी वैष्णो देवी की रक्षा के लिए हनुमान जी भी साथ थे। भैरो से लड़ने के लिए माता ने एक गुफा में नौ महीने तक तपस्या की और इस समय तक हनुमान जी ने भैरो को व्यस्त रखा। इस गुफा को ही वर्तमान में अर्द्धकुमारी के नाम से जाना जाता है। हनुमान जी को एक बार प्यास लगने पर माता ने पहाड़ पर धनुष पर बाण चलाया जिससे एक जलधारा प्रकट हो गई। इस जलधारा को बाणगंगा के नाम से जाना जाता है।
त्रिकूट पर्वत पर जिस स्थान पर माता ने भैराेनाथ का वध किया उसे वर्तमान में 'भवन' के नाम से जाना जाता है। इस स्थान पर माता वैष्णो तीन पिंडियों के रूप में विद्यमान हैं। इनमें बाएं से क्रमशः माँ सरस्वती,माँ लक्ष्मी तथा माँ काली का स्वरूप माना जाता है। भैराेनाथ का वध करने पर उसका सिर उस स्थान से काफी दूर जाकर भैरो घाटी में गिरा। वहाँ पर भैरोनाथ का मंदिर बना है।
वर्तमान में माता वैष्णो देवी के भवन से भैरोनाथ के मंदिर की दूरी लगभग 3 किमी है तथा इसका रास्ता काफी खड़ी चढ़ाई वाला है। युद्ध में हारने पर भैराेनाथ ने जब माता से क्षमा माँगी तो माता ने उसे वरदान दिया कि जो भी वैष्णो माता के दर्शन करने आयेगा,भैरोनाथ के दर्शन किये बिना उसकी यात्रा पूरी नहीं होगी। मैं भी वैष्णो माता के दर्शन के बाद भैरोनाथ के दर्शन करना चाह रहा था लेकिन मेरे अधिकांश साथी नीचे उतरने के पक्ष में थे इसलिए मुझे भी नीचे उतरना पड़ा।
बहुमत का फैसला अमान्यǃ
कटरा में अभी हमारे पास एक दिन यानी कल का दिन और शेष था। जाहिर तौर पर यह दिन शिव खोड़ी की यात्रा के लिए सर्वाधिक उपयुक्त था। प्रस्ताव रखा गया लेकिन पास नहीं हो सका। टीम दो भागों में बँट गयी थी। एक तरफ सात,दूसरी तरफ छः। आराम बहुमत में,शिव खोड़ी अल्पमत में। लेकिन बहुमत का फैसला यदि ठीक न हो तो अमान्य है। यही मानकर हम छः ने अगले दिन शिव खोड़ी जाने के लिए एक गाड़ी बुक कर ली।
अगले दिन दस बजे तक हम छः शिव खोड़ी के लिए प्रस्थान कर गये। सोने वाले सोते रह गये। गाड़ी चली तो ड्राइवर ने अपनी लकीर पकड़ी। यहाँ ये मन्दिर,वहाँ वो मन्दिर। हमने कहा कि भाई ये सारे मन्दिर पहले देखे हुए हैं। इस बार तो अपना एकसूत्रीय कार्यक्रम है– शिवखोड़ी। ड्राइवर ने सलाह मान ली। तो अब रास्ते में नाश्ता करने के अलावा और कोई काम नहीं रह गया। दो–ढाई घण्टे में रनसू पहुँच गये। यहाँ बहुमत घोड़े के पक्ष में था। ग्यारह नम्बर की जोड़ी हार गयी। घोड़े किराये पर लिये गये और शिव खोड़ी की यात्रा आरम्भ हो गयी। बहुत अधिक भीड़–भाड़ नहीं थी तो पैदल और घोड़ों के बीच धक्कामुक्की भी नहीं थी। आराम से एक घण्टे में ऊपर पहुँच गये। ऊँट की पूँछ के बराबर छोटी सी लाइन लगी थी। हमने भी जल्दी से अपनी चरणपादुकाएं और मोबाइल वगैरह जमा किये और लाइन में लग गये। पहले की तुलना में यहाँ भी सुविधाएं काफी बढ़ गयीं हैं। श्राइन बोर्ड बन गया है। कुछ नये निर्माण हो गये हैं। कर्मचारियों की नियुक्ति हो गयी है। अन्यथा 2014 में अपना कैमरा सुरक्षित रखने के लिए हमें अपनी टीम में से ही एक आदमी को बाहर छोड़ना पड़ा था। सँकरी गुफा से होते हुए महादेव के दर्शन करने में भी हमें लगभग एक घण्टे लग गये। गुफा के दूसरे द्वार पर स्थापित शिवलिंग के पास प्रवचन करते पुजारी को सुनने के लिए भीड़ लगी थी। शिव के दर्शन करने के लिए गुफा के फिसलन भरे फर्श पर लोग एक दूसरे को धकिया रहे थे। हम लोगों ने दूर से ही दो–चार मिनट तक प्रवचन सुना और धीरे से बाहर निकल गये।
शिवखोड़ी जम्मू परिक्षेत्र के रियासी जिले में स्थित है। कटरा से शिवखोड़ी की दूरी 85 किमी है। कटरा और शिवखोड़ी के बीच में पर्याप्त साधन उपलब्ध हैं। शिवखोड़ी ट्रेक पर ऊपर जाने के लिए रनसू आधार स्थल है। रनसू से शिवखोड़ी 3.5 किमी है। रनसू से शिवखोड़ी तक का मार्ग काफी हरा–भरा और सुन्दर है। मार्ग के साथ साथ श्वेत जल वाली एक धारा प्रवाहित होती है जिसे दूधगंगा कहा जाता है। स्थानीय भाषा में खोड़ी का मतलब गुफा होता है। अतः शिवखोड़ी का अर्थ है– शिव की गुफा। गुफा में प्रवेश करने के लिए कुछ सीढ़ियां भी चढ़नी पड़ती हैं। गुफा का प्रवेश द्वार काफी बड़ा है जिसमें लाइन लगाकर काफी संख्या में लाेग अन्दर प्रवेश करने के लिए खड़े रहते हैं। गुफा के इस भाग में पत्थरों की दरारों में जमे कबूतर और चमगादड़ भी यहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं। सँकरी गुफा के दूसरे छोर पर,जहाँ प्रवेश द्वार की भाँति ही खुला स्थान है,4 फीट ऊँचा शिवलिंग है। पूरी गुफा में ऊपर से रिसते पानी के कारण फिसलन बनी रहती है।
गुफा से सम्बन्धित भस्मासुर की कथा काफी रोचक है। भस्मासुर नामक असुर ने भगवान शिव की घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर शिव जी उसे यह वरदान दे दिया कि वह जिसके सिर पर हाथ रख देगा वह जलकर भस्म हो जायेगा। वरदान की शक्ति पाकर भस्मासुर अत्याचारी हो गया और देवताओं पर अत्याचार करने लगा। उसके अत्याचारों से मुक्ति पाने हेतु देवर्षि नारद ने उसके अंत का एक उपाय ढूँढ़ा और उसे पार्वती का अपहरण करने के लिए उकसाया। लालच में आकर भस्मासुर पार्वती को पाने के लिए दौड़ा। ऐसी विकट परिस्थिति देखकर शिव जी पार्वती के साथ शिवखोड़ी की तरफ भागे। रनसू नामक स्थान पर शिव और भस्मासुर का युद्ध होने लगा। अपने ही दिये गये वरदान के कारण शिव जी भस्मासुर को मार नहीं सकते थे अतः यहाँ उन्होंने अपने त्रिशूल से शिवखोड़ी का निर्माण किया और माता पार्वती के साथ गुफा में प्रवेश कर गये। यहाँ पर वे योग साधना में लीन हो गये। इधर भगवान शिव की प्रेरणा से भगवान विष्णु ने पार्वती का रूप धारण कर भस्मासुर को सम्मोहित कर लिया और उसके साथ नृत्य करने लगे। इस क्रिया में भस्मासुर ने भूल से अपने ही सिर पर हाथ रख दिया और शिव के वरदान की वजह से जलकर भस्म हो गया।
गुफा से बाहर निकल कर घोड़ेवालों को खोजा गया लेकिन वे तो हमें ही खोज रहे थे। मेरा घोड़ावाला थोड़ा अलग था। उसका किसी दूसरे घोड़ेवाले से झगड़ा हो गया था। मारपीट हो गयी थी और नाैबत पुलिस तक आ पहुँची थी। बिचारा कागज का एक पन्ना लेकर तहरीर लिखाने के लिए दौड़ रहा था। खैर,जल्दी ही इस समस्या से निजात मिली। उसकी तहरीर दे दी गयी और मैं भी जल्दी ही नीचे उतरने लगा।
शाम होने के पहले ही हम कटरा पहुँच चुके थे। भोजन की व्यवस्था रोज के लिए एक होटल वाले से थोक के भाव में कर ली गयी थी सो कोई समस्या नहीं थी। लेकिन असली समस्या तो अब आनी थी जब पता लगा कि भोर में चलने वाली वह ट्रेन,जिससे हमें वापसी करनी थी,कैंसिल हो गयी। बुरे फँसे। अब इस समय तो कुछ किया भी नहीं जा सकता था। अगले दिन अब तत्काल आरक्षण का ही सहारा था। सुबह हुई तो एक एजेण्ट से बात की गयी। अब ऐसी परिस्थिति में उसका रेट क्या हो सकता था,इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। हमारे कुनबे में बिखराव भी शुरू हो चुका था। जिसका सींग जिधर समाया उधर से ही वह निकलने की कोशिश में लग गया। हमें भी अगले दिन के लिए रिजर्वेशन तो मिला लेकिन हमारी इच्छित ट्रेन वाराणसी जाने वाली बेगमपुरा एक्सप्रेस,जो जम्मू से दिन के 2 बजे रवाना होती है,में न मिलकर हावड़ा जाने वाली हिमगिरि एक्सप्रेस में मिला जो रात के पौने ग्यारह बजे जम्मू से चलने वाली थी।
समथिंग इस बेटर दैन नथिंग।
एक दिन बेकार बिताने के बाद हम ससमय जम्मू रेलवे स्टेशन पहुँच गये। लेकिन हायǃ जिस ट्रेन को रात के पौने ग्यारह बजे जम्मू से रवाना होना चाहिए था वह ट्रेन आयी ही अगले दिन सुबह सात बजे। अब रात प्लेटफार्म पर ही गुजरनी थी। गाड़ी अगले दिन सुबह आयी। थके–हारे यात्री ट्रेन में सवार हुए और दो दिन लेट से वाराणसी स्टेशन पहुँचे। वाराणसी से पुनः पैसेन्जर ट्रेन के सहारे घर पहुँचे।
त्रिकूट पर्वत पर माता वैष्णो देवी का दरबार |
सितम्बर के महीने में त्रिकूट पर्वत पर उमड़ते बादल |
मैंने भी झोला उठा लिया |
शिवखोड़ी के रास्ते में घोड़े की सवारी |
गाड़ी और ड्राइवर दोनों को एक साथ प्यास लग गयी |
दूधगंगा |
कटरा से शिवखोड़ी के रास्ते में चिनाब नदी का सम्मोहक नजारा |
शिवखोड़ी से वापस लौटते समय कटरा से कुछ पहले एक पार्क में |
स्वच्छ जल में पेड़ों की परछाईं के साथ मछलियां |
पीली रोशनी की वजह से सोने की तरह चमकती एक सुरंग |
वैष्णो देवी व शिव खोडी की यात्रा शानदार लेखन से सजीव हो गयी है।
ReplyDeleteकाफी उथल पुथल भरी भी रही।
धन्यवाद भाई साहब। यात्रा थोड़ी उथल पुथल भरी हो तो उसका आनन्द बढ़ जाता है।
Deleteशानदार लेखन
ReplyDeleteहमारी जून महीने की यात्रा स्मरण हो आई
बहुत बहुत धन्यवाद ब्लाग पर आने के लिए। आगे भी आते रहिए और उत्साहवर्धन करते रहिए।
Deleteवैष्णो देवी और शिव खोडी का अच्छा भ्रमण करवाया आपने ब्रजेश भाई ! शानदार लेखन, पढ़कर आनंद आया ! इतने बड़े समूह में यात्रा करना वाकई हिम्मत का काम है !
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद प्रदीप भाई।
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