कल का दिन बारिश के जिम्मे रहा या फिर ये कहें कि बारिश का आनन्द लिया गया। तो फिर कल के दिन के लिए निर्धारित कार्यक्रम आज जारी था। गाड़ी वाले से बात हो गयी थी। चम्बा जाने का प्लान कैंसिल करना पड़ा। गाड़ी वाले ने नौ बजे का समय दे रखा था। हल्का–फुल्का नाश्ता करके हम बहुत पहले ही तैयार हो गये थे। बाहर निकले और गाड़ी में सवार हो गये। डलहौजी की सड़कें सँकरी हैं। कभी–कभी भीड़ हो जाती है। लेकिन शोर नहीं होता। बाकी हिल स्टेशनों जैसा भारी–भरकम जमावड़ा नहीं होता। इस समय पीक सीजन है। अगर इस समय यह स्थिति है तो बाकी समय तो और भी खाली रहता होगा।
गाड़ी चली तो उन्हीं पुराने रास्तों पर जिनपर हम पैदल घूम चुके थे। अर्थात बस स्टैण्ड से सुबास चौक,सुबास चौक से गाँधी चौक और गाँधी चौक से पंजपुला की ओर। पंचपुला का अर्थ है पाँच पुल। गाँधी चौक से पंचपुला की दूरी लगभग 2 किमी है। सुन्दर बलखाती सड़क। थोड़ी ही देर में पहुँच गये। बीच में है सतधारा फाल्स। चारों तरफ हरियाली से घिरा पंचपुला छोटा सा कस्बा है। लेकिन डलहौजी से पंजपुला तक पैदल टहलने के लिए आदर्श स्थान है यह।
पंचपुला में एक और महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ सरदार भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह का स्मारक बना हुआ है। वे एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। सरदार अजीत सिंह का निधन 15 अगस्त 1947 को हुआ था,भारत की स्वतंत्रता के दिन। इस स्मारक के पास एक एम्यूजमेण्ट पार्क भी बना हुआ है। पर्यटक टाइप के लोगों के लिए यह एक अच्छा पिकनिक स्पॉट है।
यहाँ झरनों के आस–पास पिकनिक मनाने वाले जुटते होंगे। लेकिन वीकेण्ड का समय नहीं था इसलिए भीड़–भाड़ नहीं थी। हम अच्छे समय पर पहुँचे थे। वैसे भी डलहौजी में भीड़ व शोर–शराबा हमें कहीं भी नहीं मिला। झरने के ऊपरी छोर तक पहुँचने के लिए बनी पगडण्डी पर हम चढ़ते गये और झरने के बिल्कुल पास पहुँच गये। नीचे से ऊपर की ओर देखने पर आदमी नाम की चीज नहीं दिखाई दे रही थी। केवल झरने का शोर ही सुनाई पड़ रहा था।
पास जाने पर पता चला कि सेल्फी टूरिस्टों का एक छोटा सा समूह बिल्कुल झरने के पास कब्जा किये था और हटने का नाम नहीं ले रहा था। अगल–बगल की स्थिति जानने के लिए मैंने नजर दौड़ाई तो झरने के सामने बहती धारा के बीच एक बहुत अच्छी लोकेशन दिख रही थी जहाँ से झरने की फोटो ली जा सकती थी। चूँकि दो दिन पहले खज्जियार में मेरे जूते भीग गये थे और इस वजह से मैंने चप्पल पहन रखी थी इसलिए मुझे पानी में घुसने में कोई दिक्कत नहीं थी बस पैरों में थोड़ी सी ठण्ड लग रही थी। कुछ सेकेण्ड के अन्दर मैं झरने के ठीक सामने था लेकिन अभी दो मिनट भी नहीं बीते थे कि कुछ और लोग जो झरने के साथ सेल्फी खींचने के प्रयास में थे,मेरी ही तरह जूते वगैरह निकालकर मेरे सामने आकर खड़े हो गये। मेरे रिक्वेस्ट करने पर भी नहीं माने और मेरी खोजी हुई जगह पर कब्जा कर लिया। यहाँ भी दादागिरी। मैं बहुत निराश हुआ। फिर भी एंगल बदलकर कुछ फोटो खींच ही लिए। आधे घण्टे समय बिताने के बाद यहाँ से निकले।
वापस गाँधी चौक। गाँधी चौक से खज्जियार वाले रास्ते पर। डलहौजी से चार किमी की दूरी पर एक स्थान है– बारापत्थर। यहाँ मुख्य सड़क से ही धौलाधर श्रेणियों का खूबसूरत नजारा दिखाई पड़ता है जिसे देखने के लोगों की भीड़ लगी थी साथ ही गाड़ियों की भी लाइन लगी थी। फिर भी इतनी नहीं कि उससे डलहौजी की शान्ति भंग हो। बिल्कुल शान्त होकर लोग इस स्थान की खूबसूरती का आनन्द ले रहे थे। इसी के पास अहला नामक गाँव में भुलवनी माता का मन्दिर है। इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि यह 150 वर्ष पुराना है। लेकिन मन्दिर से अधिक बड़ी बात यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता है। घाटी के चारों ओर खड़ी पहाड़ियों और उन पर पसरी हरियाली को हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियों की पृष्ठभूमि में निहारना काफी सम्मोहक है। आकर्षण इतना जबरदस्त है कि ड्राइवरों को कहना पड़ता है कि सर जल्दी चलिए नहीं तो जाम लग जायेगा। वैसे जाम लगते मुझे कहीं नहीं दिखा। यहाँ पर एक आलू विकास केन्द्र भी है।
यहाँ से चले तो अगला लक्ष्य था डाइन कुण्ड या डेण कुण्ड। इस तरह के कई मिलते जुलते नामों से यह जाना जाता है। डलहौजी से 10 किमी की दूरी पर एक स्थान है लक्कड़मण्डी। यहाँ से मुख्य सड़क 12 किमी की दूरी पर स्थित खज्जियार को चली जाती है। लक्कड़मण्डी से दाहिने हाथ या दक्षिण तरफ डाइन कुण्ड के लिए लिंक रोड जाती है। इसकी दूरी 4 किमी है। गाड़ी से उतरने के बाद पैदल ट्रेक है। इस ट्रेक पर लगभग 1.5 किमी की दूरी पर पोहलाणी देवी का छोटा सा मन्दिर बना हुआ है। वैसे इस ट्रेक पर चलते हुए काफी लम्बी दूरी तय की जा सकती है। सड़क के किनारे एक छोटा सा गेट बना हुआ है जहाँ से यह पैदल रास्ता आरम्भ होता है। सारी गाड़ियां यहीं खड़ी हो जाती हैं। यह सँकरा सा पैदल रास्ता बहुत ही सुन्दर एवं रोमांचक है। शुरू में तो सीढ़ियों के द्वारा काफी चढ़ाई है और 10 मिनट के अन्दर ही सांसें फूल गईं लेकिन बाद का रास्ता कुछ आसान है। ऊॅंचाई पर पहुँच जाने के बाद नीचे की घाटी और उसमें जंगलों के बीच बसा गाँव बहुत मनमोहक दृश्य उपस्थित कर करते हैं। डाइन कुण्ड की ऊँचाई 9000 फीट है और यह डलहौजी की सबसे ऊँची चोटी है। इतनी ऊँचाई पर पैदल टहलनाǃ बहुत ही रोमांचक लगा।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यहाँ मानव बस्ती नहीं है और इस वजह से यह पूरी तरह स्वच्छ एवं हरा–भरा स्थान है। जंगलों एवं हरी–भरी घासों से घिरी पहाड़ी पगडण्डी पर चलना बहुत ही आनन्ददायक अनुभव रहा। कल की बारिश की वजह से मौसम बहुत सुहावना हो गया था। काफी लोग इस ट्रेक का अनुभव लेने के लिए पहुँचे हुए थे लेकिन कोई बहुत भीड़ नहीं थी और काफी शान्त माहौल था। कभी कभी तो पहाड़ी पगडंडी पर हम बिल्कुल अकेले हो जा रहे थे तो कभी कभार इक्का–दुक्का लोग मिल जा रहे थे। पहाड़ी की चोटी पर पोहलाणी देवी का एक छोटा सा मन्दिर बना हुआ है। मन्दिर के पास एक–दो छोटी दुकानें हैं जहाँ सबसे सुलभ नाश्ता 40 रूपये प्लेट वाला मैगी परोसा जा रहा था। चिप्स और कुरकुरे भी उपलब्ध थे। इस पहाड़ी का पैदल ट्रेक मन्दिर से आगे भी गया हुआ है। हम इसी रास्ते पर कुछ दूर आगे भी चलते गये। मन्दिर से आगे बढ़ने पर एक चोटी पर काली माँ की एक प्रतिमा स्थापित है। इसके आगे कुछ चरवाहे अपनी भेड़–बकरियां चरा रहे थे। हम भेड़–बकरियों के झुण्ड में घुस गये और फोटो खींचने लगे। अन्य यात्री यहाँ पहुँचने की कोशिश नहीं कर रहे थे। हमें बकरियों का फोटो खींचते देख चरवाहे खुश हो रहे थे।
आस–पास टहलने एवं मन्दिर का दर्शन करने के बाद हम वापस लौटे। इस पूरी पैदल ट्रेकिंग में हमें एक घण्टे चालीस मिनट का समय लगा और जब वापस लौटे तो दोपहर के 12.30 बज रहे थे। यहाँ से वापस फिर लक्कड़मण्डी। लक्कड़मण्डी से कालाटोप। कालाटोप डलहौजी और चम्बा के बीच 3069 हेक्टेयर में फैला एक वन्यजन्तु अभयारण्य है। इसकी ऊँचाई 4000 से 9000 फीट के बीच है। लक्कड़मण्डी,कालाटोप,डाइनकुण्ड,बारापत्थर और खज्जियार इस अभयारण्य के अन्तर्गत ही आते हैं। कालाटोप में प्रवेश हेतु एक बैरियर लगा हुआ है जहाँ गाड़ियों के लिए प्रवेश शुल्क लगता है। यहाँ ड्राइवर से थोड़ी किच–किच हुई। ड्राइवर कह रहा था कि 250 का प्रवेश शुल्क आपको देना पड़ेगा। उसकी कालाटोप के अन्दर जाने की इच्छा ही नहीं थी क्योंकि कल की बारिश की वजह से रास्ते में कीचड़ हो गया था। रास्ता भी काफी सँकरा है।
मैं किसी भी कीमत पर अन्दर जाना चाह रहा था इसलिए प्रवेश शुल्क का भुगतान मुझे ही करना पड़ा। रास्ता वास्तव में बहुत कीचड़ भरा था। फिर भी पैदल ट्रेकिंग के लिहाज से यह बहुत सुन्दर है। कालाटोप देवदार और ओक के वृक्षों से भरा हुआ बहुत ही घना एवं शान्त जंगल है। जंगल में दिनभर पैदल घूमा जाय तो बहुत कुछ देखने को मिल जायेगा। लक्कड़मण्डी से कालाटोप जंगल के अन्दर बने रेस्ट हाउस की दूरी 3 किमी है। यहाँ एक छोटा सा पार्क बना हुआ है। यहाँ तक पहुँचे सारे लोग इस रेस्ट हाउस के आस पास घूम कर वापस आ रहे थे। हम भी यहीं से घूम कर वापस हो लिए। हाँलाकि जंगल के अन्दर घूमकर देखने लायक बहुत सुन्दर दृश्य हैं।
अब हम लक्कड़मण्डी से वापस डलहौजी बस स्टैण्ड की ओर लौट रहे थे। क्योंकि यहाँ से हमें चमेरा बाँध की ओर जाना था। ड्राइवर की नजर में हम बोटिंग करने जा रहे थे। अपनी सोच में हम चमेरा बाँध और बाँध की वजह से बनी एवं पहाड़ों से घिरी झील देखने जा रहे थे। डलहौजी में चमेरा बाँध देखने का कोई मतलब ही नहीं है। मतलब है तो बस बोटिंग। गाड़ियों की बुकिंग बोटिंग के लिए होती है न कि चमेरा बाँध व झील देखने के लिए। चमेरा पठानकोट से आकर चम्बा जाने वाले दूसरे मुख्य मार्ग पर मुख्य सड़क से लगभग 13 किमी हटकर है। इस मुख्य मार्ग पर बनीखेत से चम्बा की दूरी 46 किमी है जबकि डलहौजी–खज्जियार होकर बनीखेत से चम्बा के बीच की दूरी 50 किमी है। डलहौजी बस स्टैण्ड से चमेरा बाँध की दूरी 33 किमी है। डलहौजी से बनीखेत की दूरी 7 किमी है। बनीखेत से चमेरा वाले रास्ते पर बनीखेत से 8 किमी दूर एक कस्बा है– बथरी। यह घाटी में स्थित है और छोटा सा बाजार भी है। यहाँ पहुँचते–पहुँचते हमें लगभग ढाई बज गये थे। भूख लग रही थी सो गाड़ी रोकी गयी। घाटी में स्थित होने के कारण मौसम भी गर्म महसूस हो रहा था। एक दुकान पर देखा तो समोसे बन रहे थे। बालूशाही भी दिखी। रेट भी किसी टूरिस्ट प्लेस की तरह न होकर हमारे साधारण बाजारों सा था। फिर क्या था,टूट पड़े। शरीर को ऊर्जा मिल गई।
बथरी से आगे बढ़े तो केवल डेढ़ किमी की दूरी पर देवी डेहरा नामक स्थान पर एक रॉक गार्डेन है। ड्राइवर से कहा तो गाड़ी रोक दी। बोला– यहाँ कुछ नहीं है। सामने से देखने पर वास्तव में कुछ खास नहीं दिखाई पड़ रहा था। लेकिन हम देखने के लिए ही तो आये हैं। आगे बढ़ते गये। अब रॉक गार्डेन है तो पत्थर तो होंगे ही। पत्थर भी सुन्दर लग रहे थे। गार्डेन में आगे बढ़े तो बड़े–बड़े पत्थरों के बीच एक बहुत ही खूबसूरत झरना शाेर मचाये हुए था। अगर ड्राइवर की बात मान लिये होते तो इसकी खूबसूरती देखने से वंचित रह गये होते। यह झरना काफी दूर से धारा बनाये हुए चला आ रहा था। कुछ देर तक हम वहीं बैठ गये। पीछे की तरफ पृष्ठभूमि में पहाड़ियां दिखाई दे रहीं थी। कुछ लोग पानी में घुसकर पत्थरों पर बैठे थे। साथ ही आम खा रहे थे और उसका छ्लिका पानी में फेंक रहे थे। हमें बहुत बुरा लगा। कुछ देर बैठे रहकर हम वापस आ गये।
रॉक गार्डेन से चले तो सीधे चमेरा बाँध ही जाकर रूके। चमेरा बाँध रावी नदी पर बना है। बाँध से ठीक पहले पुलिस चेक–पोस्ट पर चेकिंग हुई और उसके बाद हम उस पार चले गये। बाँध पर रूकना और फोटो खींचना प्रतिबन्धित है। ड्राइवर भी हमें बोटिंग प्वाइंट पर ले जा रहा था। वैसे और कहीं रूकने का कोई मतलब भी नहीं था। हो सकता है कि कहीं से छ्पि कर फोटो खींचते काेई देख ले तो समस्या खड़ी हो जाय। हाँ सड़क पर पैदल टहलते हुए झील की खूबसूरती का आनन्द उठाया जा सकता है। बोटिंग प्वाइंट पर आने वाले लोगों की सहूलियत के हिसाब से चाय–नाश्ते की कई दुकानें उग आई हैं। सड़क से नीचे की ओर जाने पर बोटिंग स्टैण्ड है। पास में ही टिकट काउण्टर है। वैसे तो हम पहले ही बोटिंग न करने की बात तय करके आये थे लेकिन टिकट काउण्टर पर लगी बोटिंग की दरें देखकर रही सही सम्भावना भी समाप्त हो गयी। स्पीड बोट का 8 मिनट का किराया प्रति व्यक्ति 400 रूपये। मोटर बोट का किराया 30 मिनट का 300 तथा 50 मिनट का 400 रूपये। हमें न बोटिंग करनी थी,न की गयी। हमको कुछ खाने की इच्छा कर रही थी तो 40 रूपये प्लेट वाली मैगी पर हाथ साफ कर दिया। झील के आस पास काफी देर तक टहलते रहे।
थक जाने के बाद अब हमने लौटने का फैसला किया। ड्राइवर की खोज हुई तो आसानी से ही मिल गया। रास्ते में कहीं रूकने की आवश्यकता नहीं थी। सीधे बथरी,बनीखेत होते हुए डलहौजी बस स्टैण्ड और होटल तक। होटल पहुँचकर कुछ देर आराम किए। इसके बाद भोजन की खोज में निकले। किसी नये विकल्प की तलाश में थे। तभी बस स्टैण्ड के सामने एक छोटा सा होटल दिखा। पास गये तो लिखा था– "नवरतन ढाबा।" रेट लिखा था 50 रूपये थाली। हमने सोचा कि आज इसे ही आजमाया जाय। लेकिन एक छोटा सा कमरा था। उसी में केवल तीन छोटे मेज और बाहर हमारी तरह ही कई लोग इन्तजार में खड़े थे। लेकिन इसी बीच एक मेज खाली हुई और हमने कब्जा कर लिया। बाहर खड़े लोग ताकते रह गये। 50 रूपये के हिसाब से खाना ठीक–ठाक ही था। क्योंकि डलहौजी में कोई शुद्ध शाकाहारी रेस्टोरेण्ट और उसमें भी उत्तर भारतीय थाली मिलना काफी मुश्किल भरा काम है।
23 जून
आज पठानकोट से हमें ट्रेन पकड़नी थी। शाम को 3.50 पर बेगमपुरा एक्सप्रेस। चूँकि पठानकोट से डलहौजी आते समय हमें बस में 4 घण्टे लगे थे अतः हम सावधान थे कि कहीं देर न हो जाय। पता किया ताे डलहौजी से पठानकोट के लिए कई बसें थीं। सुबह 5 बजे,5.30 बजे,7.15 बजे,8.30 बजे,9.45 बजे,12.00 बजे,1.30 बजे,4.30 बजे,11.15 बजे। इनमें हिमाचल राज्य सड़क परिवहन निगम एवं पंजाब के निजी संचालकों की बसें भी शामिल हैं। हमने इनमें से 8.30 बजे वाली बस को चुना। होटल से 8 बजे ही चेक आउट कर लिया और बस स्टैण्ड पर आकर खड़े हो गये। बस यहाँ पहले से लगी नहीं थी वरन कहीं और या सम्भवतः चम्बा से आई थी। बस में पर्याप्त सीटें खाली थीं।
बस समय से चली लेकिन 7 किमी दूर बनीखेत में जाकर खड़ी हो गयी और आधे घण्टे तक खड़ी रही। लेकिन वहाँ से चली तो चलती रही और इसमें भीड़ भी बढ़ती रही। यहाँ तक कि पूरी बस खचाखच स्टैण्डिंग हो गयी। पठानकोट पहुँचने में 4 घण्टे लग गये। बस बाई पास से न जाकर सीधी पठानकोट बस स्टेशन चली गयी। चूॅंकि हमें बाई पास के बगल में पठानकोट कैण्ट या चक्की बैंक रेलवे स्टेशन जाना था इसलिए बस स्टेशन से हमें आटो पकड़नी पड़ी। आटो से पठानकोट कैण्ट रेलवे स्टेशन पहुँच गये। ट्रेन लगभग समय से आई और हम सवार हो गये। डलहौजी की नीरवता में से निकलकर एक बार फिर से हम शोर भरी मनुष्यों की वास्तविक दुनिया में प्रवेश कर गये थे।
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. वाराणसी से डलहौजी
2. खज्जियार–मिनी स्विट्जरलैण्ड
3. डलहौजी–बारिश में भीगा एक दिन
4. डलहौजी–नीरवता भरा सौन्दर्य
गाड़ी चली तो उन्हीं पुराने रास्तों पर जिनपर हम पैदल घूम चुके थे। अर्थात बस स्टैण्ड से सुबास चौक,सुबास चौक से गाँधी चौक और गाँधी चौक से पंजपुला की ओर। पंचपुला का अर्थ है पाँच पुल। गाँधी चौक से पंचपुला की दूरी लगभग 2 किमी है। सुन्दर बलखाती सड़क। थोड़ी ही देर में पहुँच गये। बीच में है सतधारा फाल्स। चारों तरफ हरियाली से घिरा पंचपुला छोटा सा कस्बा है। लेकिन डलहौजी से पंजपुला तक पैदल टहलने के लिए आदर्श स्थान है यह।
पंचपुला में एक और महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ सरदार भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह का स्मारक बना हुआ है। वे एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। सरदार अजीत सिंह का निधन 15 अगस्त 1947 को हुआ था,भारत की स्वतंत्रता के दिन। इस स्मारक के पास एक एम्यूजमेण्ट पार्क भी बना हुआ है। पर्यटक टाइप के लोगों के लिए यह एक अच्छा पिकनिक स्पॉट है।
यहाँ झरनों के आस–पास पिकनिक मनाने वाले जुटते होंगे। लेकिन वीकेण्ड का समय नहीं था इसलिए भीड़–भाड़ नहीं थी। हम अच्छे समय पर पहुँचे थे। वैसे भी डलहौजी में भीड़ व शोर–शराबा हमें कहीं भी नहीं मिला। झरने के ऊपरी छोर तक पहुँचने के लिए बनी पगडण्डी पर हम चढ़ते गये और झरने के बिल्कुल पास पहुँच गये। नीचे से ऊपर की ओर देखने पर आदमी नाम की चीज नहीं दिखाई दे रही थी। केवल झरने का शोर ही सुनाई पड़ रहा था।
पास जाने पर पता चला कि सेल्फी टूरिस्टों का एक छोटा सा समूह बिल्कुल झरने के पास कब्जा किये था और हटने का नाम नहीं ले रहा था। अगल–बगल की स्थिति जानने के लिए मैंने नजर दौड़ाई तो झरने के सामने बहती धारा के बीच एक बहुत अच्छी लोकेशन दिख रही थी जहाँ से झरने की फोटो ली जा सकती थी। चूँकि दो दिन पहले खज्जियार में मेरे जूते भीग गये थे और इस वजह से मैंने चप्पल पहन रखी थी इसलिए मुझे पानी में घुसने में कोई दिक्कत नहीं थी बस पैरों में थोड़ी सी ठण्ड लग रही थी। कुछ सेकेण्ड के अन्दर मैं झरने के ठीक सामने था लेकिन अभी दो मिनट भी नहीं बीते थे कि कुछ और लोग जो झरने के साथ सेल्फी खींचने के प्रयास में थे,मेरी ही तरह जूते वगैरह निकालकर मेरे सामने आकर खड़े हो गये। मेरे रिक्वेस्ट करने पर भी नहीं माने और मेरी खोजी हुई जगह पर कब्जा कर लिया। यहाँ भी दादागिरी। मैं बहुत निराश हुआ। फिर भी एंगल बदलकर कुछ फोटो खींच ही लिए। आधे घण्टे समय बिताने के बाद यहाँ से निकले।
वापस गाँधी चौक। गाँधी चौक से खज्जियार वाले रास्ते पर। डलहौजी से चार किमी की दूरी पर एक स्थान है– बारापत्थर। यहाँ मुख्य सड़क से ही धौलाधर श्रेणियों का खूबसूरत नजारा दिखाई पड़ता है जिसे देखने के लोगों की भीड़ लगी थी साथ ही गाड़ियों की भी लाइन लगी थी। फिर भी इतनी नहीं कि उससे डलहौजी की शान्ति भंग हो। बिल्कुल शान्त होकर लोग इस स्थान की खूबसूरती का आनन्द ले रहे थे। इसी के पास अहला नामक गाँव में भुलवनी माता का मन्दिर है। इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि यह 150 वर्ष पुराना है। लेकिन मन्दिर से अधिक बड़ी बात यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता है। घाटी के चारों ओर खड़ी पहाड़ियों और उन पर पसरी हरियाली को हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियों की पृष्ठभूमि में निहारना काफी सम्मोहक है। आकर्षण इतना जबरदस्त है कि ड्राइवरों को कहना पड़ता है कि सर जल्दी चलिए नहीं तो जाम लग जायेगा। वैसे जाम लगते मुझे कहीं नहीं दिखा। यहाँ पर एक आलू विकास केन्द्र भी है।
यहाँ से चले तो अगला लक्ष्य था डाइन कुण्ड या डेण कुण्ड। इस तरह के कई मिलते जुलते नामों से यह जाना जाता है। डलहौजी से 10 किमी की दूरी पर एक स्थान है लक्कड़मण्डी। यहाँ से मुख्य सड़क 12 किमी की दूरी पर स्थित खज्जियार को चली जाती है। लक्कड़मण्डी से दाहिने हाथ या दक्षिण तरफ डाइन कुण्ड के लिए लिंक रोड जाती है। इसकी दूरी 4 किमी है। गाड़ी से उतरने के बाद पैदल ट्रेक है। इस ट्रेक पर लगभग 1.5 किमी की दूरी पर पोहलाणी देवी का छोटा सा मन्दिर बना हुआ है। वैसे इस ट्रेक पर चलते हुए काफी लम्बी दूरी तय की जा सकती है। सड़क के किनारे एक छोटा सा गेट बना हुआ है जहाँ से यह पैदल रास्ता आरम्भ होता है। सारी गाड़ियां यहीं खड़ी हो जाती हैं। यह सँकरा सा पैदल रास्ता बहुत ही सुन्दर एवं रोमांचक है। शुरू में तो सीढ़ियों के द्वारा काफी चढ़ाई है और 10 मिनट के अन्दर ही सांसें फूल गईं लेकिन बाद का रास्ता कुछ आसान है। ऊॅंचाई पर पहुँच जाने के बाद नीचे की घाटी और उसमें जंगलों के बीच बसा गाँव बहुत मनमोहक दृश्य उपस्थित कर करते हैं। डाइन कुण्ड की ऊँचाई 9000 फीट है और यह डलहौजी की सबसे ऊँची चोटी है। इतनी ऊँचाई पर पैदल टहलनाǃ बहुत ही रोमांचक लगा।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यहाँ मानव बस्ती नहीं है और इस वजह से यह पूरी तरह स्वच्छ एवं हरा–भरा स्थान है। जंगलों एवं हरी–भरी घासों से घिरी पहाड़ी पगडण्डी पर चलना बहुत ही आनन्ददायक अनुभव रहा। कल की बारिश की वजह से मौसम बहुत सुहावना हो गया था। काफी लोग इस ट्रेक का अनुभव लेने के लिए पहुँचे हुए थे लेकिन कोई बहुत भीड़ नहीं थी और काफी शान्त माहौल था। कभी कभी तो पहाड़ी पगडंडी पर हम बिल्कुल अकेले हो जा रहे थे तो कभी कभार इक्का–दुक्का लोग मिल जा रहे थे। पहाड़ी की चोटी पर पोहलाणी देवी का एक छोटा सा मन्दिर बना हुआ है। मन्दिर के पास एक–दो छोटी दुकानें हैं जहाँ सबसे सुलभ नाश्ता 40 रूपये प्लेट वाला मैगी परोसा जा रहा था। चिप्स और कुरकुरे भी उपलब्ध थे। इस पहाड़ी का पैदल ट्रेक मन्दिर से आगे भी गया हुआ है। हम इसी रास्ते पर कुछ दूर आगे भी चलते गये। मन्दिर से आगे बढ़ने पर एक चोटी पर काली माँ की एक प्रतिमा स्थापित है। इसके आगे कुछ चरवाहे अपनी भेड़–बकरियां चरा रहे थे। हम भेड़–बकरियों के झुण्ड में घुस गये और फोटो खींचने लगे। अन्य यात्री यहाँ पहुँचने की कोशिश नहीं कर रहे थे। हमें बकरियों का फोटो खींचते देख चरवाहे खुश हो रहे थे।
आस–पास टहलने एवं मन्दिर का दर्शन करने के बाद हम वापस लौटे। इस पूरी पैदल ट्रेकिंग में हमें एक घण्टे चालीस मिनट का समय लगा और जब वापस लौटे तो दोपहर के 12.30 बज रहे थे। यहाँ से वापस फिर लक्कड़मण्डी। लक्कड़मण्डी से कालाटोप। कालाटोप डलहौजी और चम्बा के बीच 3069 हेक्टेयर में फैला एक वन्यजन्तु अभयारण्य है। इसकी ऊँचाई 4000 से 9000 फीट के बीच है। लक्कड़मण्डी,कालाटोप,डाइनकुण्ड,बारापत्थर और खज्जियार इस अभयारण्य के अन्तर्गत ही आते हैं। कालाटोप में प्रवेश हेतु एक बैरियर लगा हुआ है जहाँ गाड़ियों के लिए प्रवेश शुल्क लगता है। यहाँ ड्राइवर से थोड़ी किच–किच हुई। ड्राइवर कह रहा था कि 250 का प्रवेश शुल्क आपको देना पड़ेगा। उसकी कालाटोप के अन्दर जाने की इच्छा ही नहीं थी क्योंकि कल की बारिश की वजह से रास्ते में कीचड़ हो गया था। रास्ता भी काफी सँकरा है।
मैं किसी भी कीमत पर अन्दर जाना चाह रहा था इसलिए प्रवेश शुल्क का भुगतान मुझे ही करना पड़ा। रास्ता वास्तव में बहुत कीचड़ भरा था। फिर भी पैदल ट्रेकिंग के लिहाज से यह बहुत सुन्दर है। कालाटोप देवदार और ओक के वृक्षों से भरा हुआ बहुत ही घना एवं शान्त जंगल है। जंगल में दिनभर पैदल घूमा जाय तो बहुत कुछ देखने को मिल जायेगा। लक्कड़मण्डी से कालाटोप जंगल के अन्दर बने रेस्ट हाउस की दूरी 3 किमी है। यहाँ एक छोटा सा पार्क बना हुआ है। यहाँ तक पहुँचे सारे लोग इस रेस्ट हाउस के आस पास घूम कर वापस आ रहे थे। हम भी यहीं से घूम कर वापस हो लिए। हाँलाकि जंगल के अन्दर घूमकर देखने लायक बहुत सुन्दर दृश्य हैं।
अब हम लक्कड़मण्डी से वापस डलहौजी बस स्टैण्ड की ओर लौट रहे थे। क्योंकि यहाँ से हमें चमेरा बाँध की ओर जाना था। ड्राइवर की नजर में हम बोटिंग करने जा रहे थे। अपनी सोच में हम चमेरा बाँध और बाँध की वजह से बनी एवं पहाड़ों से घिरी झील देखने जा रहे थे। डलहौजी में चमेरा बाँध देखने का कोई मतलब ही नहीं है। मतलब है तो बस बोटिंग। गाड़ियों की बुकिंग बोटिंग के लिए होती है न कि चमेरा बाँध व झील देखने के लिए। चमेरा पठानकोट से आकर चम्बा जाने वाले दूसरे मुख्य मार्ग पर मुख्य सड़क से लगभग 13 किमी हटकर है। इस मुख्य मार्ग पर बनीखेत से चम्बा की दूरी 46 किमी है जबकि डलहौजी–खज्जियार होकर बनीखेत से चम्बा के बीच की दूरी 50 किमी है। डलहौजी बस स्टैण्ड से चमेरा बाँध की दूरी 33 किमी है। डलहौजी से बनीखेत की दूरी 7 किमी है। बनीखेत से चमेरा वाले रास्ते पर बनीखेत से 8 किमी दूर एक कस्बा है– बथरी। यह घाटी में स्थित है और छोटा सा बाजार भी है। यहाँ पहुँचते–पहुँचते हमें लगभग ढाई बज गये थे। भूख लग रही थी सो गाड़ी रोकी गयी। घाटी में स्थित होने के कारण मौसम भी गर्म महसूस हो रहा था। एक दुकान पर देखा तो समोसे बन रहे थे। बालूशाही भी दिखी। रेट भी किसी टूरिस्ट प्लेस की तरह न होकर हमारे साधारण बाजारों सा था। फिर क्या था,टूट पड़े। शरीर को ऊर्जा मिल गई।
बथरी से आगे बढ़े तो केवल डेढ़ किमी की दूरी पर देवी डेहरा नामक स्थान पर एक रॉक गार्डेन है। ड्राइवर से कहा तो गाड़ी रोक दी। बोला– यहाँ कुछ नहीं है। सामने से देखने पर वास्तव में कुछ खास नहीं दिखाई पड़ रहा था। लेकिन हम देखने के लिए ही तो आये हैं। आगे बढ़ते गये। अब रॉक गार्डेन है तो पत्थर तो होंगे ही। पत्थर भी सुन्दर लग रहे थे। गार्डेन में आगे बढ़े तो बड़े–बड़े पत्थरों के बीच एक बहुत ही खूबसूरत झरना शाेर मचाये हुए था। अगर ड्राइवर की बात मान लिये होते तो इसकी खूबसूरती देखने से वंचित रह गये होते। यह झरना काफी दूर से धारा बनाये हुए चला आ रहा था। कुछ देर तक हम वहीं बैठ गये। पीछे की तरफ पृष्ठभूमि में पहाड़ियां दिखाई दे रहीं थी। कुछ लोग पानी में घुसकर पत्थरों पर बैठे थे। साथ ही आम खा रहे थे और उसका छ्लिका पानी में फेंक रहे थे। हमें बहुत बुरा लगा। कुछ देर बैठे रहकर हम वापस आ गये।
रॉक गार्डेन से चले तो सीधे चमेरा बाँध ही जाकर रूके। चमेरा बाँध रावी नदी पर बना है। बाँध से ठीक पहले पुलिस चेक–पोस्ट पर चेकिंग हुई और उसके बाद हम उस पार चले गये। बाँध पर रूकना और फोटो खींचना प्रतिबन्धित है। ड्राइवर भी हमें बोटिंग प्वाइंट पर ले जा रहा था। वैसे और कहीं रूकने का कोई मतलब भी नहीं था। हो सकता है कि कहीं से छ्पि कर फोटो खींचते काेई देख ले तो समस्या खड़ी हो जाय। हाँ सड़क पर पैदल टहलते हुए झील की खूबसूरती का आनन्द उठाया जा सकता है। बोटिंग प्वाइंट पर आने वाले लोगों की सहूलियत के हिसाब से चाय–नाश्ते की कई दुकानें उग आई हैं। सड़क से नीचे की ओर जाने पर बोटिंग स्टैण्ड है। पास में ही टिकट काउण्टर है। वैसे तो हम पहले ही बोटिंग न करने की बात तय करके आये थे लेकिन टिकट काउण्टर पर लगी बोटिंग की दरें देखकर रही सही सम्भावना भी समाप्त हो गयी। स्पीड बोट का 8 मिनट का किराया प्रति व्यक्ति 400 रूपये। मोटर बोट का किराया 30 मिनट का 300 तथा 50 मिनट का 400 रूपये। हमें न बोटिंग करनी थी,न की गयी। हमको कुछ खाने की इच्छा कर रही थी तो 40 रूपये प्लेट वाली मैगी पर हाथ साफ कर दिया। झील के आस पास काफी देर तक टहलते रहे।
थक जाने के बाद अब हमने लौटने का फैसला किया। ड्राइवर की खोज हुई तो आसानी से ही मिल गया। रास्ते में कहीं रूकने की आवश्यकता नहीं थी। सीधे बथरी,बनीखेत होते हुए डलहौजी बस स्टैण्ड और होटल तक। होटल पहुँचकर कुछ देर आराम किए। इसके बाद भोजन की खोज में निकले। किसी नये विकल्प की तलाश में थे। तभी बस स्टैण्ड के सामने एक छोटा सा होटल दिखा। पास गये तो लिखा था– "नवरतन ढाबा।" रेट लिखा था 50 रूपये थाली। हमने सोचा कि आज इसे ही आजमाया जाय। लेकिन एक छोटा सा कमरा था। उसी में केवल तीन छोटे मेज और बाहर हमारी तरह ही कई लोग इन्तजार में खड़े थे। लेकिन इसी बीच एक मेज खाली हुई और हमने कब्जा कर लिया। बाहर खड़े लोग ताकते रह गये। 50 रूपये के हिसाब से खाना ठीक–ठाक ही था। क्योंकि डलहौजी में कोई शुद्ध शाकाहारी रेस्टोरेण्ट और उसमें भी उत्तर भारतीय थाली मिलना काफी मुश्किल भरा काम है।
23 जून
आज पठानकोट से हमें ट्रेन पकड़नी थी। शाम को 3.50 पर बेगमपुरा एक्सप्रेस। चूँकि पठानकोट से डलहौजी आते समय हमें बस में 4 घण्टे लगे थे अतः हम सावधान थे कि कहीं देर न हो जाय। पता किया ताे डलहौजी से पठानकोट के लिए कई बसें थीं। सुबह 5 बजे,5.30 बजे,7.15 बजे,8.30 बजे,9.45 बजे,12.00 बजे,1.30 बजे,4.30 बजे,11.15 बजे। इनमें हिमाचल राज्य सड़क परिवहन निगम एवं पंजाब के निजी संचालकों की बसें भी शामिल हैं। हमने इनमें से 8.30 बजे वाली बस को चुना। होटल से 8 बजे ही चेक आउट कर लिया और बस स्टैण्ड पर आकर खड़े हो गये। बस यहाँ पहले से लगी नहीं थी वरन कहीं और या सम्भवतः चम्बा से आई थी। बस में पर्याप्त सीटें खाली थीं।
बस समय से चली लेकिन 7 किमी दूर बनीखेत में जाकर खड़ी हो गयी और आधे घण्टे तक खड़ी रही। लेकिन वहाँ से चली तो चलती रही और इसमें भीड़ भी बढ़ती रही। यहाँ तक कि पूरी बस खचाखच स्टैण्डिंग हो गयी। पठानकोट पहुँचने में 4 घण्टे लग गये। बस बाई पास से न जाकर सीधी पठानकोट बस स्टेशन चली गयी। चूॅंकि हमें बाई पास के बगल में पठानकोट कैण्ट या चक्की बैंक रेलवे स्टेशन जाना था इसलिए बस स्टेशन से हमें आटो पकड़नी पड़ी। आटो से पठानकोट कैण्ट रेलवे स्टेशन पहुँच गये। ट्रेन लगभग समय से आई और हम सवार हो गये। डलहौजी की नीरवता में से निकलकर एक बार फिर से हम शोर भरी मनुष्यों की वास्तविक दुनिया में प्रवेश कर गये थे।
पंचपुला में एक जलधारा के ऊपर बना रस्सियों का पुल |
पंचपुला में सरदार अजीत सिंह का स्मारक |
बारापत्थर का नजारा |
ऊँचे पहाड़ों की गोद में बने छोटे–छोटे घर |
बारापत्थर से |
ये खरगोश इसलिए है कि इसे गोद में लेकर लोग फोटो खिंचवायेंगे |
घास में खिले फूल |
डाइन कुण्ड पहाड़ी से नीचे का दृश्य |
डाइन कुण्ड पहाड़ी के ऊपर जाती पगडण्डी |
डाइन कुण्ड पहाड़ी पर पोहलाणी माता का छोटा सा मन्दिर |
डाइन कुण्ड की एक चोटी पर काली माँ की मूर्ति |
डाइन कुण्ड की चोटी से |
कालाटोप |
रॉक गार्डेन का झरना |
चमेरा बाँध |
चमेरा झील |
1. वाराणसी से डलहौजी
2. खज्जियार–मिनी स्विट्जरलैण्ड
3. डलहौजी–बारिश में भीगा एक दिन
4. डलहौजी–नीरवता भरा सौन्दर्य
दो बार इस क्षेत्र में यात्रा करने का लुत्फ उठाया है।
ReplyDeleteबढिया लेख
धन्यवाद जी।
Deleteश्रीमान आपका यात्रा काफी अच्छा लगा।लिखने के शैली भी काफी आकर्षक है।एक निवेदन है कि आप सुबास चौक को सुभाष चौक लिखें।ज्यादा अच्छा लगेगा।सुभाष चन्द्र बोस की और संकेत करता है सुभाष।
ReplyDeleteधन्यवाद जी भूल सुधार के लिए। वास्तव में उसका नाम सुभाष चौक ही है। मैंने गलती से ऐसा लिखा था।
Deleteश्रीमान आपका यात्रा वृतांत काफी अच्छा लगा।लिखने की शैली भी काफी आकर्षक है।एक निवेदन है कि आप सुबास चौक को सुभाष चौक लिखें।ज्यादा अच्छा लगेगा।सुभाष चन्द्र बोस की और संकेत करता है सुभाष।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया जानकारी , आपका जूता भीग गया था इसलिए आपने चप्पल पहना और मैं अपनी सारी यात्रायें चप्पल पहन कर ही किया है, बहुत ही अच्छे तरीके से आपने बस की टाइमिंग का जो डाटा दिया है वो सच में अतुलनीय है।
ReplyDeleteधन्यवाद भाई। दरअसल पैदल चलने या फिर उबड़–खाबड़ रास्ते पर चलने के लिए जूता काफी आरामदायक होता है। मैं इसीलिए अक्सर जूते का ही प्रयोग करता हूँ।
Deleteवाह सेल्फी टूरिस्ट और नीरवता भैरव सौंदर्य नए शब्द पढ़े इस बार वैसे चमेरा डैम अच्छा है सुना है...बढ़िया पोस्ट
ReplyDeleteमुझे बहुत अच्छा लगा कि आपने इन शब्दों पर ध्यान दिया। डलहौजी मुझे बहुत सुन्दर लगा और वास्तव में यह सुन्दर है भी। इसके अलावा मैं जहाँ भी डलहौजी में घूमा,मुझे यह बहुत ही शान्त लगा। सुन्दरता तो कई विशेषणों के साथ मिलने के बाद ही आती है तो डलहौजी के लिए मैंने इसमें शान्ति या नीरवता को भी जोड़ दिया। और सेल्फी टूरिस्ट तो व्यंग में रखा गया नाम है। धन्यवाद।
Deleteआपकी इस यात्रा में बर्फ कहीं भी कोई फोटो चित्र नजर नहीं आया क्या वहां पर बर्फ नहीं रहती है या बर्फ की जगह के लिए Aas Paas कहीं और जाना पड़ता है
Deleteमेरी यात्रा जून में हुई थी इसलिए बर्फ नहीं थी. डलहौजी में जाडे में बर्फ गिरती है
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