मंजिल की तरफ चलता हूँ तो कोई न कोई साथी मिल ही जाता है और मजरूह सुल्तानपुरी की वो पंक्तियां याद आ जाती हैं–
"मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल,मगर लोग साथ आते गये,कारवां बनता गया।"
वैसे तो अकेले यात्रा करना या घूमना मुझे अच्छा लगता है लेकिन कभी–कभी बिल्कुल अकेले भी यात्रा करना कुछ जमता नहीं। अकेले यात्रा करने का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि अपने मन मुताबिक घूमा जा सकता है लेकिन कम से कम एक साथी होने से यात्रा उबाऊ नहीं होने पाती। तो इस बार यात्रा में मेरे साथी बने मेरे मित्र नीरज।
नीरज की सलाह पर ही मध्य प्रदेश जाने का प्लान बना था। यात्रा का उद्देश्य था मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल और उसके आस–पास स्थित ऐतिहासिक धरोहरों सांची व भीमबेटका,जिनके चित्र हम किताबों में देखते और पढ़ते आये हैं,का खुली आंखों से दीदार करना एवं इससे आगे बढ़कर इतिहास प्रसिद्ध ग्वालियर के किले की दुर्जेयता का प्रत्यक्ष रूप में अनुभव करना। यानी हम इतिहास की यात्रा पर थे। नहीं तो इतनी गर्मी में गर्म जगह पर कोई जाता है क्या? ये तो पुराने जमाने के तपस्वियों की गर्मी के दिन में पंचाग्नि तापने वाली बात हो गयी।
नीरज की सलाह पर ही मध्य प्रदेश जाने का प्लान बना था। यात्रा का उद्देश्य था मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल और उसके आस–पास स्थित ऐतिहासिक धरोहरों सांची व भीमबेटका,जिनके चित्र हम किताबों में देखते और पढ़ते आये हैं,का खुली आंखों से दीदार करना एवं इससे आगे बढ़कर इतिहास प्रसिद्ध ग्वालियर के किले की दुर्जेयता का प्रत्यक्ष रूप में अनुभव करना। यानी हम इतिहास की यात्रा पर थे। नहीं तो इतनी गर्मी में गर्म जगह पर कोई जाता है क्या? ये तो पुराने जमाने के तपस्वियों की गर्मी के दिन में पंचाग्नि तापने वाली बात हो गयी।
मंजिल की ओर पहला कदम था घर से चलकर बनारस पहुँचना और वहां से इलाहाबाद,सतना,कटनी,भोपाल,इटारसी के रास्ते लोकमान्य तिलक टर्मिनल को जाने वाली कामायनी एक्सप्रेस पर सवार होना। ट्रेन का नाम भी ऐसा कि जिसका नाम सामने आने पर बहुत कुछ आँखों के सामने घूम जाता है। काशǃ रेलवे सभी ट्रेनों के नाम कुछ इसी तरीके से रख देता। मुझे बलिया से आना था और नीरज को देवरिया से। सो 22 मई को काफी सुबह ही घर से निकल लिए। बनारस से कामायनी एक्सप्रेस शाम को 3.50 बजे थी और हम लगभग एक घण्टे पहले ही प्लेटफार्म पर पहुँच चुके थे इसलिए बोतलों में ठण्डा पानी भरने के लिए पर्याप्त समय था। बैग में घर से लाया हुआ कुछ रूखा–सूखा था जिसमें से कुछ हिस्सा दिन में चबा चुके थे और फिर कुछ ट्रेन में बैठने के बाद। मौसम ऐसा था कि पेट पानी के सिवा कुछ माँगता ही न था। इसलिए जब–तब पानी के साथ कुछ ठोस की भी आपूर्ति कर दी जा रही थी।
ट्रेन की बोगी में प्रवेश करते ही एक विचित्र समस्या पैदा हुई। हमारी सीटें थीं 78 व 79 नम्बर की अपर व साइड लोअर बर्थ। कुछ अजीब सा तो पहले ही लगा था क्योंकि स्लीपर में 72 बर्थ ही होती है लेकिन जब बुकिंग कन्फर्म थी तो सीट भी मिलनी ही चाहिए। अपनी एस–5 बोगी में घुसे तो अक्ल ठिकाने आ गयी। 78 नम्बर की अपर बर्थ तो थी लेकिन 79 और 80 नम्बर की साइड वाली सीटें गायब थीं और उनकी जगह एक बन्द चैम्बर में बिजली के स्विच वगैरह लगे मिले जो आमतौर पर टायलेट के बगल में होते हैं।। मोबाइल पर पीएनआर नम्बर चेक किया तो पता चला दूसरी सीट एस–3 बोगी में 15 नम्बर पर चली गयी है। सारा मजा ही किरकिरा हो गया। अन्य बोगियों को चेक किया तो सबमें 80 सीटें थीं। पता नहीं बोगियां ही लम्बी थीं या किसी अन्य टाइप की बोगी को स्लीपर में कन्वर्ट किया गया था,समझ में नहीं आया। कुल मिलाकर रेलवे ने हमारे मजे का कबाड़ा तो कर ही दिया था।
ट्रेन समय से चली और थोड़ी देर बाद मैं अपनी ऊपरवाली सीट पर सवार हो गया। नीरज एस–3 बोगी में चले गये। चूँकि मेरी सीट गेट के पास ही थी तो बोगी की पहरेदारी की जिम्मेदारी मेरी ही थी। पता नहीं क्यों रात पर हो हल्ला होता रहा और मैं ठीक से सो नहीं सका। रात में आने वाले स्टेशनों पर जनरल टिकट वाले लोग हमारी स्लीपर बोगी में चढ़ने की कोशिश करते रहे और नीचे की सीट पर सोये एक सज्जन रात भर ऐसे लोगों से झगड़ते रहे। ऐसे ही किसी स्टेशन पर अपने बड़े–बड़े गठ्ठर लिए कुछ बंजारा टाइप के लोग स्लीपर बोगी में चढ़ने की कोशिश कर रहे थे। इस पर नीचे की बर्थ पर सोये वे महोदय गुस्सा हो गये और गट्ठर उठाकर नीचे फेंकने लगे। इस बीच ट्रेन चल दी। भगदड़ मच गयी। अगल–बगल के सारे यात्री जग गये और मैं तो अधजगा हुआ रातभर की पहरेदारी पर था ही।
अगली सुबह अर्थात 23 मई को अपने निर्धारित समय से लगभग एक घण्टे की देरी से हमारी ट्रेन सुबह 9.30 बजे भोपाल पहुँच गयी। स्टेशन से बाहर निकलते ही एक आटो वाले ने हमारे ऊपर अटैक किया। अच्छा होटल दिलाने का वादा करने लगा। हमने उससे होटलों के बारे में कुछ पूछताछ की,आटो का किराया तय किया और चल दिये। लगभग एक किमी की दूरी पर आटो वाला एक होटल के सामने रूका। हमने होटल में पूछताछ की। 600 रूपये किराये वाला कमरा काफी साफ–सुथरा लगा सो बुक कर लिया। अब बारी थी नहाने–धोने की क्योंकि भीषण गर्मी और पसीने ने बुरा हाल कर रखा था।
इस बीच एक और घटना घटी। नीरज के एक मित्र भोपाल के निवासी हैं और नीरज ने उन्हें फोन कर दिया। खबर मिलते ही वो भागते हुए होटल पहुंच गये। कहते हैं कि शत्रु का शत्रु मित्र होता है और इस फार्मूले पर मित्र का मित्र तो बहुत बड़ा मित्र होगा। बात सच साबित हुई। हमारी इस पूरी यात्रा में नीरज के मित्र सुरेन्द्र गुप्ता ने सपरिवार हमारी बहुत सेवा की। इस 44 डिग्री वाली गर्मी में कोई भी शहरी इतनी मेहनत नहीं कर सकता। होटल आते ही मित्र महोदय हमें अपने घर ले जाने पर अड़ गये। चूंकि होटल का एक दिन किराया चुका दिया गया था इसलिए अगले दिन चलने का वादा किया गया। फिर भी सुरेन्द्र हमलोगों को छोड़ने के मूड में नहीं थे। हमने आज का प्लान अभी कन्फर्म नहीं किया था इसलिए सुरेन्द्र की सलाह पर साँची चलने को तैयार हो गये।
साँची के लिए भोपाल से बसें चलती हैं जो आगे विदिशा या फिर सागर तक जाती हैं। लेकिन सुरेन्द्र ने हमें अपनी स्कूटी पर बैठा लिया। साढ़े ग्यारह बज रहे थे। मई महीने की भीषण गर्मी। हम पहले से ही सतर्क थे और गमछा सिर पर लपेट लिया था। भोपाल से साँची की दूरी 46 किमी है और हम तीन लोगों का वाहन थी–स्कूटी। मानो भारी–भरकम गणेश जी अपने छोटे से चूहे पर सवार हों। एक बेचारी अबला स्कूटी पर तीन–तीन भीमकाय सवारǃ
सांची ऐतिहासिक शहर विदिशा या बेसनगर से 10 किमी पहले पड़ता है। बिना रूके हुए चलें तो भी कम से कम डेढ़ घण्टे तो लगना ही था। ऊपर से सूर्यदेव भी खूब प्रसन्न थे। रास्ते में एक ढाबे में खाना खाने के लिए रूके तो मेन्यू सामने आया लेकिन कुछ समझ में नहीं आया कि क्या आर्डर करें। तभी मेरे मित्र के मित्र अर्थात सुरेन्द्र ने आवाज दी– सेव टमाटर और रोटी। सेव टमाटर मेरे लिए एक नई डिश थी। सामने आया तो पता चला कि चने के बेसन का जो नमकीन बनाया जाता है उसी को टमाटर के साथ मिलाकर और पर्याप्त मिर्च मसाला डालकर सब्जी का रूप दे दिया गया था। वैसे बहुत अच्छा लगा। पेट में पानी के लिए जगह छोड़कर पर्याप्त भोजन लिया गया। हमारी आगे की यात्रा में भी सेव टमाटर से कई बार हमारा सामना होता रहा। भोजन के बाद शरीर के कुछ बढ़े वजन के साथ हम तीनों फिर से स्कूटी पर सवार हो गये।
डेढ़ बजे के आस–पास भरी दोपहरी में विश्व प्रसिद्ध सांची का स्तूप हमारे सामने था। सूरज की तेज रोशनी में इसकी चमक कुछ और भी बढ़ गयी थी। इसके मुख्य द्वार तक पहुँचने से पहले कुछ चढ़ाई चढ़नी थी क्योंकि यह एक छोटी सी पहाड़ी पर बना है। कुछ दूर तक तो हमारी स्कूटी ने साथ दिया लेकिन मंजिल तक नहीं पहुँच सकी। आखिरकार मुझे और नीरज को स्कूटी से उतरना पड़ा। हम पैदल ही टहलते हुए स्मारक के गेट तक पहुँचे।
जब हम स्मारक परिसर में परिसर में पहुँचे तो पता चला कि यहाँ हम ही हम हैं। हमारे अलावा इस मई की इस भीषण गर्मी को चुनौती देने वाला कोई महारथी नहीं था। इस तरह यह स्मारक चमकीली धूप में चमचमाता हुआ हमारे स्वागत को बाहें फैलाये खड़ा था। स्तूप को देखकर दूर से ही समझ में आने लगा कि क्यों यूनेस्को ने इसे विश्व विरासत का दर्जा दिया है। कम से कम इस दर्जे की बदौलत हम अपनी ऐतिहासिक विरासतों का महत्व तो समझ पा रहे हैं। तीसरी शताब्दी ई0पू0 में बनी यह संरचना आज अस्तित्व में है तो ये उन महान निर्माताओं की महान सोच को दर्शाती है। कम से कम हमारे मन में भी इतना तो गर्व होता ही है कि हम आज अपने पूर्वजों द्वारा बनाई गयी इमारत को 2300 साल बाद भी देख पा रहे हैं।
अब थोड़ा इतिहास में चलते हैं। माना जाता है कि महात्मा बुद्ध के देहत्याग के पश्चात उनके शरीर पर अधिकार को लेकर उनके अनुयायियों में विवाद हुआ। अन्त में उसे आठ भागों में विभाजित कर विभिन्न स्थानों पर रखकर उनके ऊपर स्तूप बनाये गये। स्तूप शब्द संस्कृत व पाली भाषा से निकला है जिसका अर्थ होता है–ढेर। स्तूप निर्माण के आरम्भ में महात्मा बुद्ध के अवशेषों को मिट्टी इत्यादि से ढककर गोलाकार रूप दिया गया और बाद में सुरक्षा की दृष्टि से इसे ईंटों व पत्थरों से ढककर सुन्दर स्वरूप प्रदान किया गया।
वर्तमान में सांची मध्य प्रदेश के रायसेन जिले का एक छोटा सा गांव या कस्बा है जो बेतवा नदी के किनारे बसा है। सांची के मुख्य स्तूप और अन्य संरचनाओं का निर्माण तीसरी शताब्दी ई0पू0 से लेकर बारहवीं शताब्दी तक हुआ है। मूल रूप से इस स्तूप का निर्माण एक पहाड़ी के ऊपर महान सम्राट अशोक द्वारा तीसरी शताब्दी ई0पू0 में किया गया क्योंकि इस पहाड़ी पर भिक्षु जीवन के लिए आवश्यक शान्ति एवं एकान्त का वातावरण था तथा यह स्थान विदिशा नामक समृद्ध एवं सम्पन्न नगरी के समीप था। उस समय अशोक ने एक प्रस्तर स्तम्भ और अर्द्धगोलाकार रूप में ईंटों का स्तूप बनवाया था। कहा जाता है कि अशोक ने इसे अपनी पत्नी देवी के अनुरोध पर बनवाया था। देवी विदिशा के एक व्यापारी की पुत्री थीं। इस आधार पर विदिशा अशोक की ससुराल थी। बाद में शुंगकाल (दूसरी शती ई0पू0) में ईंटों के स्तूप को पत्थरों से ढका एवं सजाया गया जिससे इसका आकार और भी बड़ा हो गया। सातवाहन काल (प्रथम शती ई0पू0) में इसमें चार ताेरण जोड़े गये। गुप्तकाल में इसमें कई बुद्ध मूर्तियां एवं इमारतें बनायी गयीं। मध्यकाल में प्रतिहार एवं परमार शासकों द्वारा भी इसमें कई विहार एवं मन्दिरों का निर्माण किया गया।
सांची के स्तूप का महत्व इतिहास में है लेकिन इसे सामने से देखने पर पता चलता है कि इसका वास्तु शिल्प भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। उस महान निर्माता ने,उस महान शिल्पकार ने अपने मानव मस्तिष्क में किस तरह से इसकी कल्पना की होगी,कितना गहन विचार–संघर्ष किया होगा,हम आज इसकी कल्पना ही कर सकते हैं। इतिहास ऐसे लोगों से भी भरा पड़ा है जिन्होंने इस महान कृति को क्षति भी पहुँचायी लेकिन अमरत्व कभी नष्ट नहीं होता।
सांची के स्तूप का जीर्णोद्धार 1912 से 1919 के बीच सर जान मार्शल की देखरेख में किया गया एवं वर्तमान स्वरूप प्रदान किया गया। 1989 में यूनेस्को द्वारा इसके महत्व को देखते हुए इसे विश्व विरासत स्थल का दर्जा दिया गया। वास्तव में यह महानता की गौरवगाथा है। तेज धूप में भी सिर पर गमछा लपेटे हमने स्तूप परिसर के एक–एक भाग का निरीक्षण किया।
सांची से लौटने के लिए हम तीन महारथी फिर से उसी महाबलवान स्कूटी पर सवार हो गये। लेकिन रास्ते में एक और महत्वपूर्ण स्थान था जिसे हम सांची जाते समय छोड़ गये थे। भोपाल से सांची जाने वाले मार्ग में सांची से कुछ पहले भोपाल–विदिशा राजमार्ग को कर्क रेखा काटती है जिसे उस स्थान पर एक बोर्ड लगाकर अंकित किया गया है। थोड़ा सा पहले एक संकेतक लगा है जिस पर लिखा है–
"आप कर्क रेखा पर हैं।"
इसे पढ़कर रोमांच होता है। अब अगर हम कर्क रेखा पर पहुँचे हैं तो फोटो तो खींचेगे ही। लेकिन इसके लिए भी वहाँ लाइन लगी थी क्योंकि जो वहाँ खड़ा हो जा रहा था,हटने का नाम ही नहीं ले रहा था। सांची जाते समय भरी दोपहरी में वहाँ खड़ा होेने वाला कोई नहीं था लेकिन अब धूप का असर कम हो जाने के कारण भीड़ हो गई थी। इस भीड़ की सेवा में एक फुल्की वाला भी हाजिर हो गया था। हमने भी फुल्की वाले की सेवा ली और लाइन में लगकर फोटो खींचे।
अगला भाग ः भोजपुर मन्दिर–एक महान कृति
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. सांची–महानता की गौरवगाथा
2. भोजपुर मन्दिर–एक महान कृति
3. भीमबेटका–पूर्वजों की निशानी
4. भोपाल–राजा भोज के शहर में
5. ग्वालियर–जयविलास पैलेस
6. ग्वालियर का किला
ट्रेन समय से चली और थोड़ी देर बाद मैं अपनी ऊपरवाली सीट पर सवार हो गया। नीरज एस–3 बोगी में चले गये। चूँकि मेरी सीट गेट के पास ही थी तो बोगी की पहरेदारी की जिम्मेदारी मेरी ही थी। पता नहीं क्यों रात पर हो हल्ला होता रहा और मैं ठीक से सो नहीं सका। रात में आने वाले स्टेशनों पर जनरल टिकट वाले लोग हमारी स्लीपर बोगी में चढ़ने की कोशिश करते रहे और नीचे की सीट पर सोये एक सज्जन रात भर ऐसे लोगों से झगड़ते रहे। ऐसे ही किसी स्टेशन पर अपने बड़े–बड़े गठ्ठर लिए कुछ बंजारा टाइप के लोग स्लीपर बोगी में चढ़ने की कोशिश कर रहे थे। इस पर नीचे की बर्थ पर सोये वे महोदय गुस्सा हो गये और गट्ठर उठाकर नीचे फेंकने लगे। इस बीच ट्रेन चल दी। भगदड़ मच गयी। अगल–बगल के सारे यात्री जग गये और मैं तो अधजगा हुआ रातभर की पहरेदारी पर था ही।
अगली सुबह अर्थात 23 मई को अपने निर्धारित समय से लगभग एक घण्टे की देरी से हमारी ट्रेन सुबह 9.30 बजे भोपाल पहुँच गयी। स्टेशन से बाहर निकलते ही एक आटो वाले ने हमारे ऊपर अटैक किया। अच्छा होटल दिलाने का वादा करने लगा। हमने उससे होटलों के बारे में कुछ पूछताछ की,आटो का किराया तय किया और चल दिये। लगभग एक किमी की दूरी पर आटो वाला एक होटल के सामने रूका। हमने होटल में पूछताछ की। 600 रूपये किराये वाला कमरा काफी साफ–सुथरा लगा सो बुक कर लिया। अब बारी थी नहाने–धोने की क्योंकि भीषण गर्मी और पसीने ने बुरा हाल कर रखा था।
इस बीच एक और घटना घटी। नीरज के एक मित्र भोपाल के निवासी हैं और नीरज ने उन्हें फोन कर दिया। खबर मिलते ही वो भागते हुए होटल पहुंच गये। कहते हैं कि शत्रु का शत्रु मित्र होता है और इस फार्मूले पर मित्र का मित्र तो बहुत बड़ा मित्र होगा। बात सच साबित हुई। हमारी इस पूरी यात्रा में नीरज के मित्र सुरेन्द्र गुप्ता ने सपरिवार हमारी बहुत सेवा की। इस 44 डिग्री वाली गर्मी में कोई भी शहरी इतनी मेहनत नहीं कर सकता। होटल आते ही मित्र महोदय हमें अपने घर ले जाने पर अड़ गये। चूंकि होटल का एक दिन किराया चुका दिया गया था इसलिए अगले दिन चलने का वादा किया गया। फिर भी सुरेन्द्र हमलोगों को छोड़ने के मूड में नहीं थे। हमने आज का प्लान अभी कन्फर्म नहीं किया था इसलिए सुरेन्द्र की सलाह पर साँची चलने को तैयार हो गये।
साँची के लिए भोपाल से बसें चलती हैं जो आगे विदिशा या फिर सागर तक जाती हैं। लेकिन सुरेन्द्र ने हमें अपनी स्कूटी पर बैठा लिया। साढ़े ग्यारह बज रहे थे। मई महीने की भीषण गर्मी। हम पहले से ही सतर्क थे और गमछा सिर पर लपेट लिया था। भोपाल से साँची की दूरी 46 किमी है और हम तीन लोगों का वाहन थी–स्कूटी। मानो भारी–भरकम गणेश जी अपने छोटे से चूहे पर सवार हों। एक बेचारी अबला स्कूटी पर तीन–तीन भीमकाय सवारǃ
सांची ऐतिहासिक शहर विदिशा या बेसनगर से 10 किमी पहले पड़ता है। बिना रूके हुए चलें तो भी कम से कम डेढ़ घण्टे तो लगना ही था। ऊपर से सूर्यदेव भी खूब प्रसन्न थे। रास्ते में एक ढाबे में खाना खाने के लिए रूके तो मेन्यू सामने आया लेकिन कुछ समझ में नहीं आया कि क्या आर्डर करें। तभी मेरे मित्र के मित्र अर्थात सुरेन्द्र ने आवाज दी– सेव टमाटर और रोटी। सेव टमाटर मेरे लिए एक नई डिश थी। सामने आया तो पता चला कि चने के बेसन का जो नमकीन बनाया जाता है उसी को टमाटर के साथ मिलाकर और पर्याप्त मिर्च मसाला डालकर सब्जी का रूप दे दिया गया था। वैसे बहुत अच्छा लगा। पेट में पानी के लिए जगह छोड़कर पर्याप्त भोजन लिया गया। हमारी आगे की यात्रा में भी सेव टमाटर से कई बार हमारा सामना होता रहा। भोजन के बाद शरीर के कुछ बढ़े वजन के साथ हम तीनों फिर से स्कूटी पर सवार हो गये।
डेढ़ बजे के आस–पास भरी दोपहरी में विश्व प्रसिद्ध सांची का स्तूप हमारे सामने था। सूरज की तेज रोशनी में इसकी चमक कुछ और भी बढ़ गयी थी। इसके मुख्य द्वार तक पहुँचने से पहले कुछ चढ़ाई चढ़नी थी क्योंकि यह एक छोटी सी पहाड़ी पर बना है। कुछ दूर तक तो हमारी स्कूटी ने साथ दिया लेकिन मंजिल तक नहीं पहुँच सकी। आखिरकार मुझे और नीरज को स्कूटी से उतरना पड़ा। हम पैदल ही टहलते हुए स्मारक के गेट तक पहुँचे।
जब हम स्मारक परिसर में परिसर में पहुँचे तो पता चला कि यहाँ हम ही हम हैं। हमारे अलावा इस मई की इस भीषण गर्मी को चुनौती देने वाला कोई महारथी नहीं था। इस तरह यह स्मारक चमकीली धूप में चमचमाता हुआ हमारे स्वागत को बाहें फैलाये खड़ा था। स्तूप को देखकर दूर से ही समझ में आने लगा कि क्यों यूनेस्को ने इसे विश्व विरासत का दर्जा दिया है। कम से कम इस दर्जे की बदौलत हम अपनी ऐतिहासिक विरासतों का महत्व तो समझ पा रहे हैं। तीसरी शताब्दी ई0पू0 में बनी यह संरचना आज अस्तित्व में है तो ये उन महान निर्माताओं की महान सोच को दर्शाती है। कम से कम हमारे मन में भी इतना तो गर्व होता ही है कि हम आज अपने पूर्वजों द्वारा बनाई गयी इमारत को 2300 साल बाद भी देख पा रहे हैं।
अब थोड़ा इतिहास में चलते हैं। माना जाता है कि महात्मा बुद्ध के देहत्याग के पश्चात उनके शरीर पर अधिकार को लेकर उनके अनुयायियों में विवाद हुआ। अन्त में उसे आठ भागों में विभाजित कर विभिन्न स्थानों पर रखकर उनके ऊपर स्तूप बनाये गये। स्तूप शब्द संस्कृत व पाली भाषा से निकला है जिसका अर्थ होता है–ढेर। स्तूप निर्माण के आरम्भ में महात्मा बुद्ध के अवशेषों को मिट्टी इत्यादि से ढककर गोलाकार रूप दिया गया और बाद में सुरक्षा की दृष्टि से इसे ईंटों व पत्थरों से ढककर सुन्दर स्वरूप प्रदान किया गया।
वर्तमान में सांची मध्य प्रदेश के रायसेन जिले का एक छोटा सा गांव या कस्बा है जो बेतवा नदी के किनारे बसा है। सांची के मुख्य स्तूप और अन्य संरचनाओं का निर्माण तीसरी शताब्दी ई0पू0 से लेकर बारहवीं शताब्दी तक हुआ है। मूल रूप से इस स्तूप का निर्माण एक पहाड़ी के ऊपर महान सम्राट अशोक द्वारा तीसरी शताब्दी ई0पू0 में किया गया क्योंकि इस पहाड़ी पर भिक्षु जीवन के लिए आवश्यक शान्ति एवं एकान्त का वातावरण था तथा यह स्थान विदिशा नामक समृद्ध एवं सम्पन्न नगरी के समीप था। उस समय अशोक ने एक प्रस्तर स्तम्भ और अर्द्धगोलाकार रूप में ईंटों का स्तूप बनवाया था। कहा जाता है कि अशोक ने इसे अपनी पत्नी देवी के अनुरोध पर बनवाया था। देवी विदिशा के एक व्यापारी की पुत्री थीं। इस आधार पर विदिशा अशोक की ससुराल थी। बाद में शुंगकाल (दूसरी शती ई0पू0) में ईंटों के स्तूप को पत्थरों से ढका एवं सजाया गया जिससे इसका आकार और भी बड़ा हो गया। सातवाहन काल (प्रथम शती ई0पू0) में इसमें चार ताेरण जोड़े गये। गुप्तकाल में इसमें कई बुद्ध मूर्तियां एवं इमारतें बनायी गयीं। मध्यकाल में प्रतिहार एवं परमार शासकों द्वारा भी इसमें कई विहार एवं मन्दिरों का निर्माण किया गया।
सांची के स्तूप का महत्व इतिहास में है लेकिन इसे सामने से देखने पर पता चलता है कि इसका वास्तु शिल्प भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। उस महान निर्माता ने,उस महान शिल्पकार ने अपने मानव मस्तिष्क में किस तरह से इसकी कल्पना की होगी,कितना गहन विचार–संघर्ष किया होगा,हम आज इसकी कल्पना ही कर सकते हैं। इतिहास ऐसे लोगों से भी भरा पड़ा है जिन्होंने इस महान कृति को क्षति भी पहुँचायी लेकिन अमरत्व कभी नष्ट नहीं होता।
सांची के स्तूप का जीर्णोद्धार 1912 से 1919 के बीच सर जान मार्शल की देखरेख में किया गया एवं वर्तमान स्वरूप प्रदान किया गया। 1989 में यूनेस्को द्वारा इसके महत्व को देखते हुए इसे विश्व विरासत स्थल का दर्जा दिया गया। वास्तव में यह महानता की गौरवगाथा है। तेज धूप में भी सिर पर गमछा लपेटे हमने स्तूप परिसर के एक–एक भाग का निरीक्षण किया।
सांची से लौटने के लिए हम तीन महारथी फिर से उसी महाबलवान स्कूटी पर सवार हो गये। लेकिन रास्ते में एक और महत्वपूर्ण स्थान था जिसे हम सांची जाते समय छोड़ गये थे। भोपाल से सांची जाने वाले मार्ग में सांची से कुछ पहले भोपाल–विदिशा राजमार्ग को कर्क रेखा काटती है जिसे उस स्थान पर एक बोर्ड लगाकर अंकित किया गया है। थोड़ा सा पहले एक संकेतक लगा है जिस पर लिखा है–
"आप कर्क रेखा पर हैं।"
इसे पढ़कर रोमांच होता है। अब अगर हम कर्क रेखा पर पहुँचे हैं तो फोटो तो खींचेगे ही। लेकिन इसके लिए भी वहाँ लाइन लगी थी क्योंकि जो वहाँ खड़ा हो जा रहा था,हटने का नाम ही नहीं ले रहा था। सांची जाते समय भरी दोपहरी में वहाँ खड़ा होेने वाला कोई नहीं था लेकिन अब धूप का असर कम हो जाने के कारण भीड़ हो गई थी। इस भीड़ की सेवा में एक फुल्की वाला भी हाजिर हो गया था। हमने भी फुल्की वाले की सेवा ली और लाइन में लगकर फोटो खींचे।
स्तूप के मुख्य द्वार के पास स्थित एक बौद्ध मन्दिर |
दाहिने मुख्य स्तूप और उसके पास स्थित एक अन्य स्तूप |
पेड़ों के बीच छ्पिता सांची का मुख्य स्तूप |
स्तूप के एक तोरण की शिल्पकला |
स्तूप के चारों ओर बना परिक्रमा पथ |
मुख्य स्तूप के पास स्थित एक अन्य स्तूप |
स्तूप के पास बना तालाब |
अन्य छोटे स्तूप |
स्तूप परिसर में ये वनस्पति भी उपस्थित है |
भोपाल निवासी मित्र सुरेन्द्र गुप्ता |
इस गमछाधारी व्यक्ति को पहचान रहे हैंǃ |
आप कर्क रेखा पर हैं |
अगला भाग ः भोजपुर मन्दिर–एक महान कृति
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. सांची–महानता की गौरवगाथा
2. भोजपुर मन्दिर–एक महान कृति
3. भीमबेटका–पूर्वजों की निशानी
4. भोपाल–राजा भोज के शहर में
5. ग्वालियर–जयविलास पैलेस
6. ग्वालियर का किला
कर्क रेखा के साथ अपना फोटो भी तो लेना चाहिए था।
ReplyDeleteरेल में कई बार मजेदार अनुभव हो जाते है, कोई एक दिन बाद का टिकट लेकर यात्रा करने के आ जाता है तो कोई दूसरी ट्रेन का टिकट लेकर, अपने साथ भी सीट का झमेला दो बार हो चुका है।
कर्क रेखा के साथ अपना फोटो भी लिया है। कभी कभी रेल के अनुभव मजेदार के साथ साथ कष्टदायक भी हो जाते हैं। मेरे साथ ऐसा हो चुका है।
DeleteBahut pdha hai sanchi k bare me..aur bahut mann hai ye jagh dekhne ka..aaj apko post me vistrit jankari mili bahut acha lga. Bahut bahut dhnywad.
ReplyDeleteधन्यवाद मेरी पोस्ट पढ़ने के लिए। वैसे सांची यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व विरासत स्थ्ल है और यूनेस्को द्वारा घोषित इस सूची के सारे स्थल अवश्य ही देखने लायक हैं।
Deleteभाई सेव टमाटर की सब्जी मध्य प्रदेश की जीवन रेखा है
ReplyDeleteसही बात है भाई लेकिन मुझे नहीं पता था
Deleteबहुत ही बढ़िया विवरण, दिल्ली से चेन्नई जाते हुए इस साँची से होकर मेरा भी गुजरना हुआ पर आपकी पोस्ट को पढ़कर एक बार साँची जाना ही पड़ेगा
ReplyDeleterahichaltaja.blogspot.in
Sanchi dekhne layak jagah hai
DeleteEk bar jarur jaiye
बहुत बढ़िया विवरण ! सांची स्तूप में बुद्ध के शिष्य मोद गलयन और सरीपुत्त तिस्य के अस्थि अवशेष रखे हुए है । जिन्हें साल में एक बार आम दर्शार्थियों के लिए निकाला जाता है । सांची स्तूपों की देख-रेख श्रीलंका सरकार करती है । राष्ट्रपति भवन का गुम्बद सांची स्तूप से ही प्रेरित है ।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद। ब्लाग पर आपके आने से साहस बढ़ जाता है। वैसे मुझे लगता है कि घुमक्कड़ी से जितनी जानकारियां पाता हूँ उससे अधिक आप घर बैठे दे देते हैं।
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