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Friday, April 21, 2017

बक्सर से न्यू जलपाईगुड़ी की रेल यात्रा

अप्रैल के प्रारम्भ से ही लू व गर्मी की शुरूआत लगभग हो ही जाती है और इस समय पहाड़ी इलाकों का मौसम बहुत ही सुहावना हो जाता है। भारत के बहुत सारे हिल स्टेशनों में से दार्जिलिंग भी एक है। मैंने भी दार्जिलिंग की खूबसूरती के किस्से सुन रखे थे तो अपना भी मन चल पड़ा एक दिन दार्जिलिंग की सैर पर। इस सफर में संगीता भी साथ थी। इस वजह से इस बात का भी डर नहीं था कि बंगाल की जादूगरनी औरतें मुझे तोता बना सकें। दार्जिलिंग का नजदीकी रेलवे स्टेशन न्यू जलपाईगुड़ी और नजदीकी बस स्टेशन सिलीगुड़ी है। तो न्यू जलपाईगुड़ी की ट्रेन पकड़ने के लिए हम बलिया से चल पड़े बिहार के एक रेलवे स्टेशन बक्सर के लिए।
अप्रैल महीने की 11 तारीख और शरीर को झुलसाती गर्मी। पर मन में संतोष था कि जितने दिन दार्जिलिंग में रहेंगे उतने दिन तो कम से कम गर्मी से छुटकारा रहेगा।
इसी उमंग में हम शाम के लगभग 7 बजे तक बक्सर रेलवे स्टेशन पर पहुंच चुके थे। हमारी ट्रेन थी 12506 अप नार्थ ईस्ट एक्सप्रेस और इसका समय था 7.53 लेकिन इसकी लोकेशन के हिसाब से यह लगभग 4 घण्टे से अधिक लेट चल रही थी। फिर भी स्टेशन तो समय से पहुंचना था,सो पहुंच गये। अब जब ट्रेन की लेटलतीफी हमारी बर्थ की ही तरह कन्फर्म हो चुकी थी तो हमने स्टेशन के प्रतीक्षालय में ही चादर बिछाई और लोट गये। क्या पता स्लीपर की बोगी में कितनी भीड़ होǃ उससे तो शायद यहां कम ही थी।

मेरी जानकारी में कानपुर और मुगलसराय के बीच से होकर गुजरने वाली लगभग सभी रेलगाड़ियां लेट होती ही हैं। अगर लेट न हों इस रूट का महत्व ही समाप्त हो जाय। जो गाड़ी समय से आ रही हो,उसे भी इस रूट का टैक्स चुकाकर ही जाना पड़ता है।
हमारी रेलवे का सिस्टम भी बड़ा अजीब है। जाड़े में गाड़ियां लेट होती हैं तो कोहरा खलनायक होता है। बरसात के मौसम में अधिक बारिश या बाढ़ जिम्मेदार होती है। लेकिन गर्मियों का आरोपी आजतक पकड़ा नहीं जा सका है।
लगभग 12.15 बजे ट्रेन के आने का समय हुआ तो बोरिया–बिस्तर समेट कर भागे। गाड़ी आई लेकिन हाय रे रेलवे की व्यवस्थाǃ किसी भी बोगी पर नम्बरिंग वाली प्लेट नहीं लगी थी या शायद फिर कहीं चाक वगैरह से लिखा हो जो रात के अँधेरे में बिल्कुल भी नहीं दिख रहा था। हम अपने सामान के साथ बन्दरों की तरह उछल–कूद मचाते रहे लेकिन अपनी प्यारी बोगी का पता नहीं लगा सके। बाहर से चिल्ला–चिल्ला कर पूछने पर भी कोई बोगी का नम्बर बताने काे तैयार नहीं था क्योंकि लगभग हर बोगी में वैध यात्रियों से डेढ़ गुनी संख्या अवैध यात्रियों की थी जिन्हें बोगी के नम्बर से कोई खास सरोकार नहीं था और जो वैध यात्री थे वो निद्रादेवी की शरण में थे।

हार मानकर हम भी एक बोगी में चढ़ लिए। अन्दर जाकर पता चला कि यह एस–4 है और हमारा रिजर्वेशन एस–8 में था। हमने सोचा कि चलो कोई खास दूर नहीं हैं। लेकिन वास्तविक समस्या तो अभी सामने आनी बाकी थी। बोगी में भीड़ की स्थिति यह थी कि गैलरी में एक साथ बाहों में बाहें डाले तीन–तीन लोग सोये थे और इन तीनों के पैर अभी खतम हुए नहीं कि अगले तीन के सिर आ जाते थे। मतलब ये कि बिना किसी के सिर या पैर पर पैर रखे आगे बढ़ना नामुमकिन था। बड़ी विकट स्थिति थी। ऐसी भीड़ तो मैंने इस जन्म क्या,पिछले जन्मों में भी नहीं देखी थी। अपनी बर्थ पर सोया व्यक्ति भी बिना किसी के ऊपर पैर रखे अपनी सीट पर से उतरने की स्थिति में नहीं था। कोई त्योहार भी नहीं था फिर भी इतनी भीड़ǃ एक व्यक्ति ने बड़े ही दार्शनिक भाव से बताया,"इस ट्रेन में हमेशा ऐसी ही भीड़ होती है।"
अब तक हम भी भीड़ को वास्तविक मान चुके थे। हम हिन्दुस्तान में पैदा ही इसलिए हुए हैं कि हर छोटी–छोटी बात के लिए लाइन लगाएं और धक्का–मुक्की करें। इसलिए गैलरी में सोये लोगों को हिलाते–जगाते,किसी के सिर पर तो किसी के हाथ पर पैर रखते,हाथ में भारी–भरकम बैग उठाये,गिरते–पड़ते अपनी बोगी की तरफ चल पड़े। मन में डर भी था कि कहीं ज्यादा देर हुई और टी.टी.ई. महोदय ने हमारी सीट किसी दूसरे को समर्पित कर दी तो वाकयुद्ध या फिर मल्लयुद्ध भी करना पड़ सकता है। इसलिए हांफते–कांपते किसी बहादुर योद्धा की तरह आगे बढ़े। पसीने से बुरा हाल था फिर भी दो बोगियां पार कर गये। अब हिम्मत जवाब दे ही रही थी कि सामने ए.सी. बोगियां हाजिर हो गयीं। हमने दो मिनट दम लिया,बैग को उसके पहियों पर खड़ा किया और उसका हैण्डल पकड़ कर खींचते हुए चल पड़े। मन को काफी शान्ति मिली और शरीर को काफी आराम। ए.सी. बोगी की गैलरी खाली थी और कोई निद्रावीर इसमें दखल देने वाला नहीं था।

धीरे–धीरे ए.सी. की भी दो बोगियां पार हो गयीं और अब सामने थी ए.सी. 2 टियर की बोगी। दोनों तरफ लगे पर्दे और उनमें चैन की नींद सोये यात्रियों को देखकर मन में जलन होने लगी। मैंने बैग को कुछ बचाकर खींचना शुरू किया जिससे कहीं किसी निद्रालु को चोट न लगे। कुछ सेकेण्ड में ही यह बोगी भी पार हो गयी क्योंकि सुख का समय जल्दी गुजर जाता है,सामने थी फिर वही जनरल–कम–स्लीपर की बोगी और शीशे के जार में अँचार की तरह अवस्थित–व्यवस्थित,एक दूसरे के ऊपर सोये यात्री। अपनी तकदीर को कोसते हुए हमने अगली दो और बोगियां पार की और जैसे ही लगा कि अब अपनी स्वर्गसुन्दरी सी बोगी आने वाली है,हमारी आशाओं पर तुषारापात हो गया। सामने पैन्ट्री कार थी जिसका शटर बन्द हो चुका था। हमारे सारे संग्राम पर पानी फिर गया और जल्दी से अपनी सीट पर पहुँचने के अरमान धूल–धूसरित हो गये।
अब ट्रेन के अगले स्टेशन पर पहुॅंचने तक इन्तजार करना ही था। अगला स्टेशन था– बिहार का इतिहास प्रसिद्ध आरा जिला जहां ट्रेन के पहुँचने का समय तो था रात के 8 बजकर 41 मिनट लेकिन यह लगभग साढ़े चार घण्टे लेट हो चुकी थी इसलिए यह आरा पहुँची रात के 1 बजकर 10 दस मिनट पर। बोगी का दरवाजा लाॅक कर और गैलरी को केबिन के रूप में परिवर्तित कर उसमें सोये महान यात्रियों को बहुत पहले से ही जगाकर हम ट्रेन से उतरने के लिए बिल्कुल तैयार खड़े थे। गाड़ी के पर्याप्त धीमा होते ही हम नीचे कूदे,दौड़ते हुए पैन्ट्री कार को पार किया और अगली बोगी से उतरते यात्री से चिल्लाकर पूछा–
"भाई साहब ये किस नम्बर की बोगी है?"
उसने उल्टे ही सवाल दाग दिया–
"ये तो एस–8 है, आपको किसमें चढ़ना है?"
हमारे पास जवाब देने की फुरसत कहां थी। कूद कर बोगी में चढ़े। गेट पर कब्जा जमाये लोगों ने बड़ी ही सद्भावना के साथ अन्दर घुसने दिया और अन्दर जाने का रास्ता दे दिया।
एक सज्जन ने कहा– "आने दो भई आने दो। इन्हें भी आ जाने दो। सारी रात ट्रेन का इन्तजार ही करते रहे हैं।"

जीवित मनुष्यों के निद्रामग्न शरीरों पर चढ़ते–उतरते हम अपनी बर्थ नं0 34-36 तक पहुंचे तो जिसकी शंका मन में थी वही मिला। प्रत्येक बर्थ पर दो–दो व्यक्ति सोये मिले और नीचे से लेकर ऊपर तक सामान इतना भरा था कि कहीं पैर रखने की भी जगह नहीं थी। हाथ–पैर पकड़ कर हिलाते–हिलाते जगाने में कुछ–एक सेकेण्ड लगे। एक बर्थ तो आसानी से खाली हो गई लेकिन 36 नम्बर की निचली बर्थ पर सोयी महिला यात्री हिलने को तैयार नहीं थी। बहुत शोर मचाने पर महिला के सहयात्रियों ने बताया कि 38 नम्बर की ऊपर वाली सीट भी हमारी है आप उस पर चले जाइए। अन्धे काे क्या चाहिए,दो आँखें। बिना खोजे ऊपर वाली बर्थ मिल रही थी। हमारे पास एक थोड़ा–सा भारी और एक हल्का बैग था जिसे हमने अपनी सीटों पर ही रख लिया। जूते–चप्पल भी अपनी बर्थ पर ही रख लिये क्योंकि अगर नीचे रख देते तो फिर उनका मिलना मुश्किल था और नंगे पैर ही दार्जिलिंग घूमना पड़ता।
इतनी आपाधापी में रात के लगभग डेढ़ बज चुके थे। गर्मी और थकान से शरीर बेहाल हो चुका था लेकिन बर्थ मिल जाने के बाद हम निश्चिन्त हो चुके थे इसलिए सो गये। लेकिन सोना भी नसीब में होगा तब तो मिलेगाǃ मुश्किल से डेढ़ घण्टा बीता था कि काली कोट वाले टी.टी.ई. महोदय आ धमके। ये उनका काम था और उनके आदेश का पालन करना हमारी जिम्मेदारी,अतः आँखें मलते हुए किसी तरह मोबाइल में खोजकर टिकट दिखाया और फिर सो गये।
सुबह के लगभग 5 बजे लघुशंका महसूस हुई तो उठा और रास्ते में ऊँघते लोगों से टकराने से बचते–बचाते टायलेट तक पहुँचा तो दोनों टायलेट बन्द थे। एक में कोई यात्री घुसा था और दूसरे के दरवाजे पर दो पहरेदार खड़े थे। कुण्डी खोलने की कोशिश की तो कुण्डी नहीं खुली। पहरेदारों में से एक ने कहा–
"यह नहीं खुलेगा।"
"क्यों भई?"
"अरे यह खराब है।"
मैंने कहा, "यह खराब है तो भी मेरा काम चल जायेगा,ज्यादा कुछ नहीं करना है।"
उनमें से एक ने वास्तविक भेद बताते हुए मानो आखिरी फैसला सुना दिया– "इसमें सामान रखा है आगे चले जाइए,यह नहीं खुलेगा।"
मैं झगड़ा करने के मूड में बिल्कुल नहीं था। एक शरीफ रेलयात्री की तरह आगे चला गया। मन में सोचा कि स्पेस का सही सदुपयोग यही लोग कर रहे हैं। रेलवे इन लोगों से कुछ क्यों नहीं सीखता। अगर रेलवे इनसे सीख ले उसका सारा घाटा ही खतम हो जाय।

मैं वापस आकर सो गया। एक घंटे बाद ही शोर मचा कि पानी खत्म हो गया। अब तक सबेरा हो चुका था। मैंने भी सोचा कि निपट ही लिया जाय लेकिन बिना पानी के सम्भव कहां था। तब तक बरौनी स्टेशन आ गया। गाड़ी यहां आधे घण्टे रूकती है। बुद्धिमान लोग दौड़ पड़े। प्लेटफार्म की टोंटियों से बोतलें भर–भर कर ट्रेन के टायलेटों की तरफ दौड़ पड़े। कुछ लोग प्लेटफार्म पर ब्रश करने लगे। लाइन लग गई। मैं हक्का–बक्का खड़ा देखता रह गया। भारतीय रेल का  इस तरह का अनुभव सम्भवतः अभी मुझे नहीं हुआ था। ट्रेन की टंकियों में पानी भरा जायेगा इसकी कोई गारंटी नहीं थी। किसी बोगी के यात्री स्टेशन मास्टर के पास शिकायत करने पहुँच गये। अपनी बोगी में ऐसा कोई प्रतापी वीर नहीं था।
मैंने अनुभव किया कि हम भारतीय आखिरी सीमा तक एडजस्ट करके जीने के अभ्यस्त हो चुके हैं। किसी भी परिस्थिति में हमें कोई परेशानी नहीं। अब मुझे भी इसकी आदत डालनी ही पड़ेगी।
खैर, किसी तरह नित्यकर्म से निवृत्त हुए। मैंने भी कुछ एडजस्ट करते हुए ब्रश न करने की सोची। क्या फर्क पड़ता है एक दिन ब्रश न करने से। देश का कुछ तो पानी बचेगा। देशभक्ति की भावना हमारे अन्दर भी है कि नहीं। इसके बाद घर से लाये गये कुछ सत्तू–समोसे व वेंडरों से खरीदे गये बिस्कुट–नमकीन के भरोसे इस ट्रेन की शेष यात्रा शांतिपूर्वक बर्थ पर लेटे हुए ही सम्पन्न हुई। दिन के 12 बजकर 25 मिनट पर जब न्यूजलपाईगुड़ी स्टेशन दिखा तो लगा कि बरसों से खोई कोई चीज मिल गयी। जल्दी–जल्दी ट्रेन से उतरकर ट्राली बैग के ऊपर दूसरा बैग लादा और घसीटते हुए स्टेशन से बाहर निकले।

अगला भाग ः न्यू जलपाईगुड़ी से दार्जिलिंग की ओर

सम्बन्धित यात्रा विवरण–

8 comments:

  1. ब्रजेश जी....बहुत बढ़िया विवरण प्रस्तुत किया आपने गाड़ी पकड़ने से लेकर अपनी सीट और डिब्बा खोजने की... |

    भारत में ये तो आम है अधिकतर ट्रेनों..|

    जब हम गये थे तब ट्रेन १२ घंटा लेट थी हम लोग टूंडला जंक्शन से चढ़े थे...|

    मेरा ब्लॉग www.safarhaisuhana.com
    Ritesh Gupta

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    1. धन्यवाद रितेश जी मेरी पोस्ट पढ़ने के लिए।

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  2. ये तो लेटेस्ट न्यूज हैं। बहुत ही सुंदर यात्रा वृत्तांत ।

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    1. धन्यवाद सुनील जी। वैसे कैसा लेटेस्टǃ ये तो बहुत पुराना है।

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  3. बहुत बढ़िया विवरण दिया है ब्रजेश भाई आपने सफर की शुरुआत का, वैसे अगर रात के समय स्लीपर डिब्बे में यात्रा करनी हो तो इस तरह की समस्याएं आम है अपनी सीट को खाली कराना वाकई बहुत वीरता का काम होता है ! मैं भी कई यात्राओं पर ऐसी समस्याओं का सामना कर चुका हूँ ! लेकिन एक बात समझ नहीं आई, स्लीपर के डिब्बों से लगते हुए एसी वाले डिब्बों के दरवाजे तो बंद होते है ना !

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद प्रदीप जी ब्लॉग पर आने के लिए। वास्तव में किसी भारतीय ट्रेन में स्लीपर बोगी की सीट को रात को खाली कराना भारत–पाकिस्तान की लड़ाई से कम नहीं होता। सीट मिल जाने के बाद भी तमाम तरह की समस्याएं पीछा नहीं छोड़तीं। जहाँ तक स्लीपर और एसी के बीच के दरवाजे की बात है,वो बन्द ही होते हैं लेकिन उस रात मेरी किस्मत से खुले थे नहीं तो और भयानक स्थिति हुई होती। पैन्ट्री कार के गेट पर शटर लगा था जो पूरी तरह से बन्द था और उसे खोलना असंभव था।

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  4. आपकी लेखनी गजब की है , भाई साहब।

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    1. प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद संजय भी। आगे भी आते रहिए।

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