26 मई 2010 को जी.आर्इ.सी़ प्रवक्ता की मेरी हरिद्वार में परीक्षा थी। दो मित्र और भी मिल गये जिनका भी लक्ष्य यही था। फिर क्या था, बन गया कार्यक्रम हरिद्वार और मसूरी की यात्रा का। अत्यधिक भीड़ होने के कारण ट्रेन में आरक्षण नहीं हो पाया और हरिहरनाथ एक्सप्रेस (मुजफ्फरपुर–अम्बाला कैण्ट) में आर.ए.सी. टिकट ही मिल पाया। हमारी ट्रेन बलिया से 24 मई को दिन में लगभग 1 बजे रवाना हुई। यह हरिद्वार होकर नहीं जाती अतः 25 मई को सुबह 7 बजे के आस–पास हमने लक्सर में इसे छोड़ दिया। लक्सर पहुंचने के पहले ही ट्रेन में अपने क्षेत्र की तुलना में मौसम में हल्के–फुल्के अन्तर का आभास हो रहा था। चूंकि हमारी ट्रेन समय से थी अतः हमने सोच रखा था कि लक्सर से तत्काल आरक्षण द्वारा वापसी का टिकट ले लिया जाय। परन्तु लक्सर एक छोटा सा कस्बा है और इण्टरनेट द्वारा आरक्ष्ाण करने वाली एक ही दुकान थी जो उस दिन बन्द थी और रेलवे काउण्टर के क्लर्क की घूसखोरी की वजह से लाइन में लगे किसी भी व्यक्ति का आरक्षण नहीं हो सका। हम बेवकूफ बन कर रह गये। अन्ततः हमने हरिद्वार जाने का निश्चय किया।
लक्सर रेलवे स्टेशन से लगभग 2 किमी की दूरी पर हरिद्वार के लिए बसें वगैरह मिलती हैं। उस स्थान से एक ओवर ब्रिज भी शुरू होता है। हरिद्वार के लिए एक छोटी सी बस मिली जिसमें तीन लम्बी सीटें थी। अपनी क्षमता से तीन गुने अधिक लोगों को भरकर बसवाला ले गया। यह एक लोकल बस थी। लक्सर से हरिद्वार की दूरी लगभग 30–35 किमी है। हरिद्वार रेलवे स्टेशन से 1–1.5 किमी की दूरी पर हमने एक कमरा ढूंढ़ा जो 350 रूपये में था। साफ–सफाई एवं स्पेस काफी अच्छी थी। यह शिव मूर्ति चौक के पास एक गली में था। इस चौक पर एक सड़क हरिद्वार रेलवे स्टेशन से होकर (मुख्य मार्ग) आती है और सीधे हर की पैड़ी चली जाती है। यहीं से दक्षिण की तरफ कटकर एक सड़क कनखल को जाती है जिसपर मेरा परीक्षा केन्द्र था।
कमरे पर नहाते–धोते हमें दोपहर हो गयी। धार्मिक पर्यटन नगरी होने के कारण हरिद्वार में हर तरह के होटल, लाज, धर्मशालाएं उपलब्ध हैं। शाम को हम हर की पैड़ी घूमने निकले और रोपवे के द्वारा मंसा देवी मंदिर भी गये। वापसी हमने पैदल ही की। शिव मूर्ति चौक से हर की पैड़ी लगभग तीन किमी की दूरी पर है।
26 मई को मेरी परीक्षा थी और मेरा परीक्षा केन्द्र बगल में ही था। 12 बजे परीक्षा समाप्त होने पर हमने ऋषिकेश का कार्यक्रम बनाया।
हरिद्वार से ऋषिकेश की दूरी लगभग 25 किमी है जहां हम लगभग 3 बजे पहुंच सके। वहां हमने एक मित्र की सलाह पर चोटीवाला रेस्टोरेन्ट में खाना खाया। 85 रूपये थाली का खाना थोड़ा महंगा तो लगा लेकिन अच्छा था। इसके बाद हमने राम झूला व लक्ष्मण झूला का भ्रमण किया, तत्पश्चात त्र्यम्बकेश्वर मन्दिर का दर्शन किया। यह मन्दिर कई मंजिलों का है जिसमें उपर की मंजिलों में क्रमशः इसका आकार घटता गया है। अन्त में गंगा के ठण्डे जल में हमने काफी देर तक स्नान किया।
यद्यपि शिवालिक पर्वत श्रेणियों की श्रृंखला हरिद्वार में ही आरम्भ हो जाती है परन्तु हिमालय का सौन्दर्य ऋषिकेश से ही दिखना प्रारम्भ होता है। नदी पहाड़ों के बीच से घूमते हुए प्रवाहित होती है। चौड़ाई कम हो जाती है तथा वेग बढ़ जाता है। ऋषिकेश में स्नान करते समय नदी के वेग व जल की शीतलता का अनुभव हुआ। कुल मिलाकर यहां की नैसर्गिक सुन्दरता दर्शनीय है।
ऋषिकेश घूम लेने के बाद हमने उसी दिन देहरादून जाने का कार्यक्रम बनाया। शाम हो जाने के कारण लगा कि बस नहीं मिल पायेगी, लेकिन संयोगवश एक प्राइवेट बस मिल गयी। ऋषिकेश से देहरादून की दूरी लगभग 45 किमी है। देहरादून पहुंचने में काफी रात हो गयी और 9.30 बज गये। रात में ही हमें ठहरने व खाने के लिए होटल ढूंढ़ना पड़ा जिसमें काफी दिक्कतें आयीं। रहने के लिए किसी तरह 100 रूपये में एक जैन धर्मशाला मिली जो रेलवे स्टेशन से कुछ ही दूरी पर स्थित है। धर्मशाला तो बहुत बड़ी है पर व्यवस्था ठीक नहीं है। इसके बाद हम भोजन के फेर में पड़े। आस–पास बहुत कम संख्या में होटल थे और बहुत ही महंगे। किसी तरह काम चलाया गया। पीने के पानी की भी समस्या थी। ध्यान देने वाली बात यह थी कि यहां शाकाहारी होटल इने–गिने ही हैं। कुल मिलाकर हमें यह लगा कि उत्तराखण्ड भ्रमण के लिए देहरादून में ठहरना न तो आवश्यक है, न ही सुविधाजनक।
27 मई को हम सुबह जल्दी उठे और तैयार होकर मसूरी जाने के लिए निकले। यात्रियों की संख्या काफी अधिक थी और बसाें की कम, इसलिए सीट के लिए मारामारी थी। पर हम थे खाली हाथ, पीठ पर बैग। कूद–फांद कर चढ़ गये। सामान वाले यात्री बहुत परेशान थे। देहरादून से मसूरी की हमारी 35 किमी की यह यात्रा काफी आनन्ददायक रही। दून घाटी से मसूरी की ओर काफी चढ़ाई है। मध्य हिमालय के निचले भाग में स्थित पहाड़ों की रानी मसूरी अपनी प्राकृतिक सुन्दरता के लिए यूं ही नहीं विख्यात है। मई के महीने में भी नवम्बर जैसा एहसास हो रहा था। मसूरी में दर्शनीय स्थल तो बहुत हैं, परन्तु समयाभाव के कारण हम कुछ विशेष भ्रमण नहीं कर सके। हमने मसूरी की सबसे उंची चोटी गनहिल पर पैदल चढ़ाई की। चोटी से चारों तरफ नीचे का नजारा बहुत ही मोहक दिखायी दे रहा था जिसने हमारी सारी थकान दूर कर दी। मसूरी से कुछ दूरी पर कैम्पटी फाल है परन्तु वहां के लिए बस में सम्भवतः पहले से बुकिंग करानी पड़ती है और यह मसूरी में बिना ठहरे सम्भव नहीं है। टैक्सी या छोटी गाड़ियां कभी भी मिल सकती हैं लेकिन महंगी हैं।
27 मई को ही हमने वापसी का कार्यक्रम भी बना लिया था इसलिए जल्दी ही देहरादून भागना पड़ा। वैसे मैं एक या दो दिन रूककर घूमना चाह रहा था। बस के बारे में कुछ निश्चित न हो पाने के कारण हमने एक एम्बेसडर कार तय की जिसने तीन अन्य सवारियों को भी बैठा लिया जिससे गाड़ी में काफी भीड़ हो गयी।
देहरादून से गोरखपुर या वाराणसी आने के लिए बहुत अधिक ट्रेनें नहीं है। इसके लिए हरिद्वार, रूड़की या लक्सर आना पड़ता है। देहरादून–गोरखपुर एक्सप्रेस सप्ताह में दो दिन है और लगभग 17 घण्टे लगाती है लेकिन उस दिन उसमें भयंकर भीड़ थी, बुद्ध पूर्णिमा के स्नान के कारण। अंततः हमने शाम 6.15 पर देहरादून वाराणसी एक्सप्रेस पकड़ी जिसने 24 घण्टे से भी अधिक समय में वाराणसी पहुंचाया जहां से हमने अपने घर के लिए बस पकड़ी।
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